अपूर्व बहुत यात्राएं की . बहता रहा हूँ पर बहका नहीं . जि़ंदगी ने पंख दिए खूब उड़ा ,जितनी उड़ान भरी उतनी ही उड़ान छूटी भी . उड़ान से मतलब विमान नहीं बल्कि यात्राएं ..जो कभी यातनाएं भी बनीं . शुरू में यात्रायें ट्रेन से ही की . इसलिए यात्राओं के साथ यातनाओं का भी इतिहास है . फूलों की घाटियों से गुजऱा हूँ तो तपते रेगिस्तान से भी . शहद चखा तो डंक भी लगा .यात्राएं ऐसी अजब -गज़ब रहीं कि पहाड़ों में फूल न देखे पर रेगिस्तान में फूल देख लिए … साथ सफर करने वाले बुज़ुर्ग साथियों ने पहले ही समझा दिया था : ”अभी से पाँव के छाले न देखो अभी यारो सफऱ की इब्तिदा है ” इसलिए मुंबई में कुछ रोज़ गुज़ारने के बाद एक शाम जब दादर से ट्रेन रद्द होने की सूचना मिली और लगातार तीन दिनों तक मुंबई में बरसते पानी के कारण यही सूचना मिलती रही ….तो ‘सफऱ की इब्तिदा..’ मानकर किसी तरह मृगांक मैत्रा ,जॉय कर, श्रीधर के साथ गुज़ार ली … वैसे मुझे पूरे कॉलेज काल तक स्कूल जीवन के कुछ सपने हौंट करते ठीक ऐसी ही ट्रेन छूटने के सपने आज तक हौंट करते हैं .ट्रेन छूटने का दूर -दूर तक ष्ठष्ठरुछ्व जैसी फि़ल्मी बातों से कोई रिश्ता नहीं पर अच्छा खासा ट्रेन छूटने का इतिहास है . भोपाल में समता एक्सप्रेस का दिन बदलता है और मैं पुराने समय के अनुसार रिज़र्व टिकट लेकर तब तक इंतज़ार करता हूँ जब तक कुली मुझ पर हँसता नहीं .. इसी भोपाल में अकेले कई बार ट्रेन छूटी उतना कष्ट न हुआ पर परिवार के साथ छूटी तो कष्ट हुआ .. रायपुर से जबलपुर के लिए अमरकंटक एक्सप्रेस में सवार हुए .अगले स्टेशन बिलासपुर में मित्र राजेश मिले दोनों ने जल्दी डिनर लिया और सीधे सो गए क्योंकि सुबह साढ़े तीन बजे जबलपुर पहुँचती थी ट्रेन . सुबह सबेरे मैंने पुकारा ‘उठो राजेश .. सुबह हो गयी ..जबलपुर आने वाला है ..’ बाजू वाले ने झाड़ा ‘बस सोते रहो ….ट्रेन आगे बढ़ेगी तो जबलपुर आएगा .ट्रेन तो पेंड्रा के आगे रात भर से रुकी है .. आगे पत्थर गिरे हैं ..साफ़ होंगे तब आगे जाएगी ..” याद आता है इस ट्रेन में मित्र बागरेचा जी भी सवार थे . रेलवे ने ट्रेन वापिस पीछे लेने का फैसला लिया .विरोध हो गया . आधे लोगों ने कहा ट्रेन पीछे नहीं जाएगी …पूरे 15 -18 ट्रेन जंगल में खड़ी रही .आधे ट्रेन को आगे ले जाने लड़ रहे थे आधे -पीछे . हम न आगे के लिए बोल पाए न पीछे के लिए …पेट में 20 घंटे से दाना नहीं गया था आखिर आवाज़ निकलती तो कैसे …जंगल में थे पर न दाना न पानी … ये जंगल में अमंगल था … ख़ैर , पूरे 20 घंटे बाद ट्रेन को पीछे ही लेने का फैसला लिया गया और चौबीस घंटे के बाद पेट पकड़े ,अकड़ी पीठ के साथ घर वापिसी . फिर एक बार अगस्त में मुंबई .उस दिन दिन भर बारिश होती रही .मुंबई की सडक़ें पानी में डूब रही थीं और हमारा दिल किसी बड़ी आशंका के डर से डूबता जा रहा था . शाम 7 बजे मुंबई मेल थी . हमेशा की तरह लौटते में बड़ी खरीददारी की वजह से ज़्यादा सामान . प्रसंगवश बताता चलूँ मैं और मेरे मित्र ख़ासकर देवेश उस समय मनीष मार्किट से ‘इम्पोर्टेड ’ के चक्कर में सब कुछ न फूँक देते मुंबई से टलते नहीं थे. सब कुछ फूंककर होटल खालीकर सामान से लदे भीगते हुए दादर पहुंचे .साथ राजेश थे .दोनों को दादर स्टेशन पहुंचकर पता चला ट्रेन 12 घंटे विलम्ब से . मैंने उन्हें देखा उन्होंने मुझे देखा जेब टटोली [ तब एटीएम के दिन नहीं थे ] वापिस होटल में . सुबह फिर दादर स्टेशन पर पहुंचे पता चला ट्रेन और 12 घंटे विलम्ब से मैंने मित्र की घड़ी की तरफ देखा [ तब घड़ी अच्छी कीमत में बिक जाया करती ] उन्होंने शायद मेरी घड़ी की तरफ देखा वापिस होटल में … दूसरे दिन पता चला ट्रेन भारी बारिश की वजह से 3 दिन रद्द . मैंने उनके खरीदे सामान की तरफ देखा उन्होंने मेरे खरीदे सामान की तरफ तीख़ी निगाह डाली और वापिस होटल में …. मैंने अपने मित्र को हौंसला देते हुए बताया घबराओ मत कुछ बरस पहले इसी दादर स्टेशन से बड़े भाई मनोज दवे जी और मुझे जय भीम रैली वालों ने ट्रेन से ऐसे उतारा था कि दर्द निवारक दवा तक बेअसर थी ..ट्रेन यात्रा में ऐसा होता है .आज कम से कम दर्द की दवा की ज़रूरत तो नहीं …हौसला रखो राजेश !! राजेश तो हिम्मती था हौंसला रखा पर जब ट्रेन तो ट्रेन कम्बख़्त तीन फुटिया टॉय ट्रेन ने भी डंक मारा तो मुझसे बर्दाश्त न हुआ .. बर्दाश्त तो मेरे घर वालों को भी तब न हुआ होगा जब बचपन में मैंने ट्रेन में खेलने न देने पर जूता खिडक़ी से बाहर फेका होगा या छात्र जीवन में संजय रावत के साथ भोपाल से रायपुर कभी सफर करते हुए नया सूटकेस गुमा दिया होगा ! पर कम से कम टॉय ट्रेन से ये कतई-कतई उम्मीद न थी . बताइये खिलौना ट्रेन …वो भी परिवार के साथ … क्या किस्मत !! ‘कोई दुश्मन को यूँ न देखेगा जैसे कि़स्मत को देखता हूँ मैं’ हुआ ये परिवार के साथ दार्जलिंग जाना टॉय ट्रेन से तय हुआ . [अब तक मेरा शिमला प्रवास शुरू नहीं हुआ था ] किसी अनुभवी ने बताया कि ट्रेन इतनी धीरे चलती है कि उतरे चाय पी फिर आगे जाकर पकड़ ली …कुछ ऐसी ही कथाएं सुनी थीं . न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन के बाद कहीं किसी स्टेशन पर बेटी के लिए कुछ खरीदने उतरा। ट्रेन चल पड़ी .वेंडर ने बताया आपकी ट्रेन छूट गयी . मैंने कहा पकड़ लेंगे और मित्र की थ्योरी बताई .वेंडर ने कहा -‘ किस दुनिया में हैं ? वो पूर्व जन्म की बात है जब भाप से इंजन चलता था अब डीजल से चलता है …नहीं पकड़ पाओगे .. मैंने टैक्सी पकड़ी और ट्रेन को फॉलो किया .फॉलो करता -करता कोई एक स्टेशन से पहले टैक्सी ने उतारा और सुझाव दिया ट्रेन आने से पहले तेज़ भागूं और ट्रेन जब बाजू से गुजऱे तो हैंडल थाम लूँ .उसने कहा आप गतिशील रहोगे तो पकड़ लोगे .. मैंने तेज़ दौड़ लगाई और ट्रेन जब बाजू से गुजऱी तो एक बोगी का हैंडल थाम ही लिया ..आज भी याद है उस बोगी में बिराजे एक अँगरेज़ दंपत्ति कुछ ऐसे देख बुदबुदाए थे मानों मैं अपनी ‘अंतिम -यात्रा’ से लौट के आ रहा हूँ ……