सतीश कुमार
ऑल एस्कॉर्टस इम्पलाइन यूनियन के साथ-साथ एचएमएस में भी एक लम्बे समय तक सक्रिय रहे सुभाष सेठी के प्रयासों ने जिस तरह एस्कॉर्टस यूनियन सुदृढ से सुदृढतर तो बनाई। लेकिन यह सुदृढता आर्थिक एवं संसाधनों तक ही सीमित रही जबकि किसी भी संगठन को चलाने के लिये वैचारिक एवं सैद्धान्तिक सुदृढता की जरूरत अधिक होती है। सेठी ने संगठन तो शानदार खड़ा कर दिया परन्तु सैद्धान्तिक एवं वैचारिक अभाव के चलते भर-भरा कर गिरने के कागार पर पहुंच गया।
जहां तक मज़दूर वर्ग अथवा ट्रेड यूनियनों की सत्ता में भागीदारी पाने की बात है वहां तक तो सेठी की सोच ठीक रही लेकिन इसे पाने के लिये जब वे रंग-बिरंगे नेताओं की परिक्रमा करते हुए उनके जाल में $फंसते हैं, वह ट्रेड यूनियनवाद के लिये घातक सिद्ध हुआ। समझने की बात है कि यदि वे चौटालों की टिकट पर विधायक बन भी जाते तो मज़दूर वर्ग अथवा ट्रेड यूनियन के लिये क्या कर पाते? कुछ भी नहीं कर पाते, वे एकदम सामंती सोच वाले चौटालों के बंंधुआ बन कर रह जाते। चौटालों के सामने विधायक तो क्या मंत्री तक की भी कोई औकात नहीं होती; जरूरत पडऩे पर उन्होंने कई विधायकों व मंत्रियों तक की ‘डेंटिंग-पेंटिंग’ अपनी तेजा खेड़ा $फार्म हाउस वाली ‘वर्कशॉप’ में कर छोड़ी है। इतना ही नहीं जॉर्ज हो या सुषमा स्वराज, ये कहां तक के मज़दूर वर्ग के साथ खड़े रह पाये, यह सब आज जमाने भर के सामने है।
उस वक्त शायद सेठी यह समझ ही नहीं पाये कि इन रंग बिरंगे नेताओं के सहारे वे ट्रेड यूनियन की दूरगामी राजनीति नहीं कर पायेंगे। समझने के लिये दूर जाने की जरूरत नहीं है, चौटालों द्वारा खड़ा किया गया लोक मज़दूर संघ क्या करता था, केवल चौटालों के इशारों पर नाच-गा कर अपना भरण-पोषण करने के साथ-साथ चौटालों की थाली में कारखानेदारों को परोसते थे। चौटालों के टिकट पर विधायक बनते तो उन्हें भी यही सब करना पड़ता या $िफर चौटालों के हाथों प्रताडि़त होना पड़ता। लब्बो-लुआब यह कि ट्रेड यूनियन के लिये जितना काम सेठी बिना विधायक बने कर पाये, उतना विधायक बन कर न कर पाते।
हां, राजनीतिक सत्ता में ट्रेड यूनियन अथवा मज़दूर वर्ग की भागीदारी हासिल करने के लिये उन्हें अपने बूते पर सीधे राजनीति में उतरना चाहिये था। उस वक्त उनके पस जितना पड़ा मज़दूर संगठन एवं संसाधन मौजूद थे वे जि़ला भर में एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनने के लिये पर्याप्त थे। उस ताकत के भरोसे वे जि़ले भर की तमाम विधान सभा सीटों व लोक सभा सीट पर कड़ी टक्कर दे सकते थे। लेकिन इसके लिये उन्हें अपने अनुगामियों को सियासी तौर पर तैयार करना था जो उन्होंने नहीं किया। उन्होंने अपनी इस ताकत को विभिन्न राजनेताओं की चाकरी में बर्बाद कर दिया। कभी वीपी सिंह के चुनाव में सैंकड़ों मोटर साइकिल सवारों का का$िफला फतेहपुर जा रहा है तो कभी सुषमा स्वराज की सुरक्षा के लिये दर्जनों कार्यकर्ता नारनौल भेजे जा रहे हैं तो कभी रामबिलास पासवान को दिल्ली से रोहतक जाने के लिये टैक्सी उपलब्ध कराई जा रही है और न जाने क्या-क्या इन राजनेताओं की सेवा में, सेठी ने, मज़दूर की ताकत को खर्च किया। यदि इन नेताओं की चाकरी करने की अपेक्षा उन्होंने अपने आप को एक राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित किया होता तो वही सब नेता सेठी की परिक्रमा कर रहे होते। कहने की जरूरत नहीं मजबूत संगठन सभी को आकृष्ट करता है। अपने मज़दूर साथियों को एक राजनीतिक शक्ति में न पिरो सकने के कारण कोई कांग्रेस के गीत गाने लगाा तो कोई बंसी लाल की विशाल हरियाणा पार्टी का टिकट पाने की लाइन में जा लगा तो कोई भाजपा का झंडा उठाये घूम रहा है। जिस संगठन में इतने दिग्भ्रमित नेता हो जायें तो उसका पतन होना तय है।
जब ट्रेड यूनियन की अपनी राजनीति विकसित करने की बजाय विभिन्न राजनीतिक दलों के चक्रव्यूह में नेतृत्व $फंसता है तो कुछ मज़दूर नेताओं के छोटे-मोटे व्यक्तिगत काम तो बन जाते हैं परन्तु मज़दूर वर्ग के व्यापक हित में कोई काम नहीं हो पाता। न तो किसी श्रम कानून में कोई संशोधन हो सकता है और न ही मौजूदा कानूनों को लागू कराने हेतु कारखानेदारों पर कोई दबाव डाला जा सकता है, क्योंकि राजनेताओं को उनसे मोटे-मोटे चंदे जो लेने होते हैं। इन हालात में जिस मज़दूर के हाथ भी थोड़ा सा नेतृत्व लगता है वह अपने अर्थिक हितों को बढावा देने का प्रयास करता है। उसका लक्ष्य व्यापक मज़दूर हित न रह कर, उसकी आड़ में अपना निजी हित हो जाता है। वह कम्पनी से छोटे-मोटे व्यापार करके धन कमाने की कोशिश करता है। कोई कम्पनी को माल सप्लाई करने या कराने का धंधा पकड़ता है तो कोई लेबर सप्लाई का ठेका भी छद्म नाम से लेकर उसी तरह मज़दूर का शोषण करने लगता है जैसे कोई कारखानेदार अथवा सरमायेदार करता है। और कुछ नहीं तो जीवन बीमे का व्यापार तो एक सदा बहार धंधा है ही जिसके द्वारा मज़दूरों के साथ-साथ प्रबन्धकों का भी ‘कल्याण’ कर दिया जाता है।
जाहिर है जब नेतृत्व इतना लाभकारी नज़र आने लगे तो उसे प्राप्त करने के लिये खर्च उठाने में भी कोई हर्ज नहीं समझा जाता। सेठी ने कुछ हद तक इस बात को समझते हुए यूनियन चुनाव के कुछ नियम बनाये थे। इनके अनुसार कोई उम्मीदवार प्रचार सामग्री-इश्तिहार आदि नहीं बांटेगा और न ही दावतें खास कर शराब आदि की, आयोजित करेगा। लेकिन ये सभी सतही उपाय खास कामयाब नहीं हो
पाये।।
(सम्पादक : मजदूर मोर्चा)