मुंह में राम बगल में नीतीश कुमार
विकास नारायण राय
बिहार ने जंगल राज के टैग से 15 वर्ष पहले छुटकारा पा लिया था। चुनाव के नतीजों से लगता है, अब उसे एक फ़ासिस्ट राज को भुगतना होगा।
नीतीश शासन की विगत पारी में ही कानून-व्यवस्था लचर हो चली थी, आने वाली पारी में यह दिशाहीन भी होने जा रही है। हालिया चुनाव प्रचार के अंतिम चरण में नीतीश कुमार और भाजपा के असहज हो चुके सम्बन्धों को परिभाषित करने वाले एक निर्णायक क्षण को याद कीजिये। भाजपा के स्टार प्रचारक, भगवा फायर ब्रांड, योगी आदित्यनाथ ने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का कार्ड खेलते हुए सीएए-एनआरसी की राह से ‘घुसपैठियों’ को देश से निकालने का निश्चय दोहराया और अगले ही दिन जवाब में मंच से नीतीश की ललकार आयी कि देखते हैं हमारे ‘लोगों’ को कौन देश से बाहर कर सकता है। नीतीश अभी एनडीए में बड़े भाई की भूमिका में थे। चुनाव के नतीजों ने उन्हें भाजपा के छोटे भाई की भूमिका में पहुंचा दिया है। अब भी वे मुख्यमंत्री तो बने रहेंगे लेकिन ऐसी ललकार देने की स्थिति में नहीं होंगे।
पुरानी कहावत ‘मुंह में राम बगल में छुरी’, बिहार में चुनाव उपरान्त ‘मुंह में राम बगल में नीतीश कुमार’ हो गयी है। भाजपा के साथ नई सरकार के मुखिया के रूप में नीतीश के राजनीतिक कद में कटौती का स्वाभाविक असर प्रदेश की कानून-व्यवस्था की स्थिति पर पड़ेगा। एक खींच-तान वाली शासन व्यवस्था में बेशक गृह मंत्रालय नीतीश के पास ही बना रहे लेकिन राज्य की पुलिस को भाजपा के हिंदुत्व मानदंडों पर भी खरा उतरना होगा।
आश्चर्य नहीं, मुस्लिम-द्वेषी सीएए / एनआरसी और स्त्री-द्वेषी रोमियो स्क्वाड / लव जिहाद जैसे संघी एजेंडे समय-समय पर सामाजिक फिजां में साम्प्रदायिक एवं लैंगिक जहर घोलते मिलें और जातिवादी द्वेष प्रशासनिक संरक्षण में पनपता रहे जबकि बतौर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को स्थिति से मुंह चुराना पड़े।
चुनाव में एनडीए की जीत बेहद करीबी रही लेकिन उसके घटक भाजपा को एक बड़ी जीत मिली। दो टूक कहें तो भाजपा की चुनावी स्क्रिप्ट को अब लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री बनने जा रहे नीतीश कुमार की गठबंधन सरकार में खुल कर खेलने का अवसर मिलेगा। भाजपा को मिली बड़ी चुनावी सफलता में ही उसकी त्रि-आयामी स्क्रिप्ट की धार में तेजी आने के संकेत भी निहित हैं। कैसी दिखेगी यह स्क्रिप्ट? नीतीश की पीठ में छुरा और सिर पर ताज होगा; ओवैसी के रूप में उत्तर भारत में एक वोकल मुस्लिम पार्टी के राजनीति में पदार्पण से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को बल मिलेगा; हिंदुत्व के शरीर में जातिवादी आत्मा को फलने-फूलने के लिए भरपूर प्रशासनिक सहारा रहेगा।
प्राय:, भाजपा का कॉर्पोरेट एजेंडा उस तरह चर्चा में नहीं जगह पाता जैसे कि उसका प्रत्यक्ष साम्प्रदायिक एजेंडा। जबकि पार्टी कॉर्पोरेट हितों के पोषण और संरक्षण को लेकर भी कम आक्रामक नहीं कही जा सकती। सारे देश में पाए जाने वाले बिहारी श्रमिकों के लिए स्वयं उनके गृह राज्य में रोजगार क्यों नहीं है? यहाँ तक कि कोविद जैसी महामारी की व्यापक मार से शुरू हुआ इन श्रमिकों का रिवर्स माइग्रेशन भी ज्यादा दिन नहीं टिक सका। इस नीतिगत आक्षेप को भी समझना चाहिए कि लम्बे समय से बिहार को सस्ते श्रम के स्रोत-राज्य की भूमिका में जान-बूझकर रखा गया है।
अगर लालू शासन के 15 वर्ष विकास-विहीन रहे तो नीतीश कुमार के 15 वर्ष रोजगार-विहीन। इस चुनाव में, एक दूसरे पर वार करने के क्रम में, नीतीश का एनडीए विकास की और तेजस्वी का महागठबंधन रोजगार की बात यूँ ही नहीं मतदाताओं के बीच ले कर जा सका।
बिहार की कानून-व्यवस्था की बात हो और लालू दौर के ‘जंगल राज’ की बात न हो, यह संभव नहीं। इस चुनाव प्रचार में भी साफ़ था कि बिहार में ‘जंगल राज’ एक ऐसा सर्व स्वीकृत रूपक बन चुका है जिसे जब चाहे लालू निंदा के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। हालाँकि, युवा तेजस्वी ने इसे ‘रोजगार राज’ के विमर्श में बदलने की शुरुआत कर दी है। भाजपा, जो बिहार में अगली नीतीश सरकार को ड्राइव करेगी, ने ‘आत्मनिर्भर बिहार’ का नारा जरूर दिया है लेकिन उसका अपने सरकारी रोजगार-विहीन विकास के मॉडल में जमीनी बदलाव करने का जरा भी इरादा नहीं दिखता।
यानी राज्य वासियों को आगामी एनडीए शासन की कानून-व्यवस्था में ‘जंगल राज’ के दौर की ऐतिहासिक विसंगति के स्तर पर ही जीना होगा। तब सामाजिक न्याय का आवरण उनकी आँखों पर पर्दे की तरह काम करता था। अब, सुशासन बाबू की छाया रह गए नीतीश कुमार के शिखंडी नेतृत्व में उन्हें ‘जंगल राज’ की वापसी से डराया जाता रहेगा और, दरअसल, जंगल राज से भी कई गुना बदतर एक फासिस्ट राज के लिए तैयार किया जाता रहेगा।
(पूर्व डायरेक्टर, नेशनल
पुलिस अकादमी,