मज़दूर मोर्चा ब्यूरो सोनीपत जि़ले के खरखोदा से आये किसान रामभज ने इस संवाददाता को बताया कि एक साल चले इस आन्दोलन से हरियाणा व पंजाब के किसानों में जो भाईचारा उत्पन्न हुआ है वह किसी पारिवारिक सम्बन्धों से कम नहीं है। इस जुदाई के वक्त रामभज की आंखों में आंसू थे और भावुक होते हुए उसने कहा कि एक वर्ष की इस लड़ाई ने उन्हें यह सबक दिया है कि भाजपा को वोट देकर एवं मोदी को अपने सिर पर बिठा कर हमने बहुत बड़ी गलती की है। उस गलती का खमियाजा हम भुगत चुके हैं, अब आगे से कभी भूल कर भी भाजपा के चंगुल में नहीं फसेंगे।
इसी दौरान अपना सामान लपेट कर पानीपत की ओर जाने वाले हरि सिंह नामक एक ट्रैक्टर चालक को रोक कर इस संवाददाता ने बातचीत की तो उन्होंने बताया कि वो बीते एक साल में दो-दो तीन-तीन महीने के लिये तीन बार इस धरने में आकर बैठा था। उन्होंने स्वत: कहा कि उनके गांव वालों ने काम के हिसाब से सब लोगों की धरने पर बैठने की बारी बांध रखी थी। इस आन्दोलन से मिले सबक के बारे में पूछेे जाने पर उन्होंने कहा कि चौधरी छोटू राम ने किसानों को कहा था कि ‘दुश्मन को लो पहचान और बोलना लो सीख’। उनकी इस बात को हम भुला चुके थे इसी लिये भाजपा के चंगुल में फस कर अपनी ऐसी-तैसी करा ली। लेकिन अब इस आन्दोलन ने दुश्मन को पहचानना व उससे लडऩा तक भी सिखा दिया। 26 नवम्बर 2020 से, करीब 378 दिन दिल्ली की सीमाओं पर ध्यान देने के बाद किसानों ने घर वापसी शुरू कर दी। धरने पर बैठने के लिये आते किसानों को रोकने के लिये भाजपा शासित राज्यों हरियाणा व यूपी सरकारों ने अपना सारा ज़ोर लगा दिया था। सडक़ों पर अवरोधक लगाने से भी काम न चला तो सडक़ें खोदने जैसा गैर कानूनी कृत्य भी इन सरकारों ने किये। लाठी चार्ज व आंसू गैस तक का भी किसानों पर कोई असर न हुआ। इतने झंझटों व मुसीबतों से जूझते आये ये किसान जब यहां से वापस जाने लगे तो नजारा एकदम भिन्न था। नाचते-गाते, ढोल बजाते किसानों के जत्थें की रवानगी का दृष्य बहुत ही भावुक था। करीब एक साल तक पंजाब व हरियाणा के विभिन्न गांवों से आये लाखों लोग ऐसे घुल-मिल गये जैसे एक परिवार हो। रवानगी के वक्त महिलायें तो महिलायें पुरुष व बच्चे ऐसे आंसू बहा रहे थे जैसे दुल्हन की बिदाई के वक्त रोते हैं। यह भावनात्मक जुड़ाव उन लोगों में था जो पहले कभी एक दूसरे को जानते तक नहीं थे, और तो और उनकी भाषायें भी अलग-अलग थी, रीति-रिवाज व धर्म भी अलग-अलग थे।
इन सब को जोडऩे में फेंवीकोल का सा काम किया इन सबके साझा किसानी लक्ष्य ने, लक्ष्य भी ऐसा कि इन सबके जीवन-मरन से जुड़ा था। साझे लक्ष्य को पहचान कर संघर्ष में उतरे इन किसानों के आपसी जुड़ाव एवं एकता को तोडऩे के लिये संघी सरकारों ने किसी तरह की कोई कोर कसर न छोड़ी थी। धर्म, जाति से लेकर क्षेत्रवाद तक के हथियार फेल हो गये। सतलुज लिंक नहर का मुद्दा उछाल कर हरियाणा के किसानों को पंजाबी किसानों के विरुद्ध भडक़ाने के जवाब में हरियाणा के किसानों ने अपनी भाषा में कुछ ऐसा कहा , ‘‘जिब खेते ना रहंगे तो पानी मैं के डूब कैै मरांगे’’ कितना मार्मिक और माकूल जवाब था हरियाणा के उन किसानों का जिन्हें आज तक तमाम सरकारें पानी के नाम पर, बीते पचासों साल से भडक़ाती आ रही थी।
हज़ारों किसानों पर झूठे मुकदमे दर्ज कराने के साथ-साथ, हर तरह से उनका उत्पीडऩ सरकारों द्वारा किया गया। 750 से अधिक किसान इस आन्दोलन में शहीद हो गये। देश की आम जनता को इनके विरुद्ध खड़ा करने के लिये किसानों को देशद्रोही, खालिस्तानी, नक्सली, मवाली और न जाने क्या-क्या कहा गया। सारा गोदी मीडिया सरकार के इस झूठे प्रोपेगंडे में साल भर जुटा रहा, परन्तु किसानों ने इसकी परवाह न करते हुए जवाबी प्रोपेगेंडा करके जनसाधारण को बहुत हद तक यह समझा दिया कि उनका आन्दोलन न केवल किसानों के लिये बल्कि उनके लिये भी कितना जरूरी है। जनता को समझ आने लगा था कि जब किसान और किसानी तबाह हो जायेगी तो वे भी तबाही से कैसे बच पायेंगे।
इस आन्दोलन ने शहीद भगत सिंह के उस कथन को शत-प्रतिशत सही सिद्ध कर दिया कि जब जनता अपने ऊपर आन पड़े साझे संकट से लडऩे के लिये एकजुट होकर संघर्ष में उतरती है तो उसे जाति, धर्म तथा क्षेत्रवाद जैसे वे मुद्दे नज़र नहीं आते जिनको उठा कर पूंजीवादी सरकारें फूट डाल कर अपना राज-काज चलाती हैं। इस आन्दोलन ने हिन्दू-मुस्लिम की वह कृत्रिम खाई भी बहुत हद तक पाट दी जिसे हिंदुत्ववादी शक्तियां बरसों से चौड़ी करने में जुटी थी। जिस धार्मिक ध्रुवीकरण के बल पर भाजपा सत्तारूढ़ हुई थी और इसी के बूते सदैव सत्तारूढ़ बने रहने का सुनहरा ख्वाब देख रही थी, उसे इस आन्दोलन ने पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। किसान आन्दोलन की दूसरी बड़ी देन यह है कि समाज के जो तबके उत्पीडि़त होने के बावजूद संघर्ष करने से घबराते थे, सरकार के दमनकारी कानूनों के सामने मुंह खोलने तक की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे, अब उनमें भी नये हौसले का संचार होने लगा है। अब जगह-जगह बैंक व अन्य कर्मचारी, ट्रेड यूनियनें संघर्ष में उतरने की तैयारी में हैं। इस आन्दोलन ने न केवल देश भर की जनता को बल्कि दुनिया भर की जनता को यह संदेश दे दिया है कि जनता की एकजुटता के समक्ष कोई भी सत्ता ज्यादा समय तक टिक नहीं सकती। जिस मोदी को अब तक अजेय समझा जाता था, जो झुकना नहीं जानता था, उसे ऐसा लमलेट कर दिया कि कुर्सी बचानी भारी पड़ रही है।
इस आन्दोलन ने एक सबसे बड़ी सीख यह भी दी है कि जनता को किसी राजनीतिक पार्टी अथवा उसके नेता की प्रतीक्षा में समय नहीं गंवाना चाहिये। जनता को अपने में से ही सही नेतृत्व पैदा करना चाहिये। जो कम्युनिष्ट पार्टियां इस देश में, बीते 100 साल से किसान मज़दूर की लड़ाई लडऩे का आडम्बर कर रही थीं वे इस आन्दोलन के दौरान न जाने कौन से कोने में दुबकी बैठी थी? उनके द्वारा खड़ी की गयी किसान सभायें व ट्रेड यूनियन का कहीं अता-पता नज़र नहीं आ रहा था। इस आन्दोलन ने इन पार्टियों का यह भ्रम भी दूर कर दिया कि केवल वे ही मज़दूर किसान के हितों की रक्षक हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि पूरे किसान आन्दोलन पर वामपंथ का ही कब्ज़ा रहा लेकिन दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे महानगरों के आलीशान दफ्तरों में बैठे वामपंथ के मठाधीश कहीं भी नज़र नहीं आये। एक-दो बार इन मठाधीशों ने आन्दोलन की अगुआई करने का प्रयास तो जरूर किया था लेकिन सफल नहीं हो पाये। वामपंथ की बुनियादों पर खड़े इस आन्दोलन ने अपने भीतर ही चेक बैलेंस का ऐसा सिस्टम विकसित किया कि आन्दोलन कहीं भी भटकने न पाये।
इस आन्दोलन की एक विशेषता यह भी रही है कि इसका नेतृत्व 40 से अधिक विभिन्न गुटों के नेता कर रहे थे। इन सब ने मिलकर संयुक्त किसान मोर्चा खड़ा किया। अक्सर देखा जाता है कि 40 तो क्या चार गुट भी चार दिन में लड़-भिड़ कर अपनी-अपनी अलग दुकान खोल लेते हैं। नि:संदेह इस तरह की फूट में शासन की बड़ी भूमिका रहती है। संयुक्त किसान मोर्चा में भी सेंध लगाने की भरपूर कोशिश संघियों ने की थी, लेकिन वे 40 में से एक को भी तोड़ नहीं पाये। गजब की बात तो इन गुटों में खुद का बनाया हुआ अनुशासन का पालन सदैव सब गुटों ने किया। जिस किसी गुट के नेता पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की गई, उसने बगावत न करके बखुशी उसका पूरा पालन किया। यह अनुशासन ही इस आन्दोलन की एक बड़ी ताकत रहा।