कानून दमन का यंत्र बन कर न रह जाये बल्कि न्याय का यंत्र बने- सीजेआई चंद्रचूड़

कानून दमन का यंत्र बन कर न रह जाये बल्कि न्याय का यंत्र बने- सीजेआई चंद्रचूड़
November 20 14:21 2022

मज़दूर मोर्चा ब्यूरो
शनिवार दिनांक 12 नवम्बर को, भारत के नवनियुक्त मुख्य न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने अपने भाषण में कहा कि न केवल जजों की बल्कि तमाम प्रशासनिक अधिकारियों की जिम्मेदारी बनती है कि कानून केवल दमन का यंत्र बन कर न रह जाय बल्कि इसे न्याय का यंत्र बनना चाहिये। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने बात तो बड़े पते की कही है परन्तु इस पर अमल कौन, कैसे और क्यों करेगा? समझने वाली बात यह है कि यह सारी शासन-प्रशासन एवं कानून व्यवस्था किसने और क्यों बनाई है?

भारत की मौजूदा प्रशासनिक एवं न्यायिक ब्यवस्था ब्रिटिश सरकार की देन है। उसने यह ब्यवस्था इस देश की जनता को अपने नागपाश में बांध कर निचोडऩे के लिये बनाई थी। दिखावे के लिये तो यह अमन-शान्ति व न्याय प्रदान करने के लिये थी, परन्तु वास्तव में इसका उद्देश्य इस देश की धन सम्पदा को लूट कर अपने देश तक निर्वाध रूप से ले जाने की थी। जो कोई इसके विरोध में खड़ा हो अथवा उनके शोषण प्रणाली में बाधक बने उसे देश-द्रोही एवं अपराधी घोषित किया जा सके। उनके इसी कानून के अनुसार सरदार भगत सिंह सहित तमाम स्वतंत्रता सेनानी देशद्रोही एवं अपराधी थे। उन सबको सजा देकर ब्रिटिश सरकार न्यायकारी होने का दावा करती थी। आज भी जो कोई सरकार पर सवाल करे उसे देशद्रोही एवं आपराधी ठहरा दिया जाता है।

1947 से मिली तथाकथित आजादी के बाद भी वही कानून एवं न्याय ब्यवस्था आज भी जारी है। वहीं पुलिस, वही भारतीय दंड संहिता, वही दंड प्रक्रिया संहिता तथा वही सब दमनकारी अधिनियम आज भी ज्यों के त्यों, बल्कि उनसे भी अधिक घातक कानून आज भी कायम हैं। ब्रिटिश सरकार ने तो एक ही जलियां वाला कांड किया था, अब तो आये दिन जहां-तहां ऐसे कांड हो रहे हैं। सरकार जिसे चाहे दोषी और जिसे चाहे निर्दोष साबित करवा देती है। न्याय मांगने वालों को ही, न्याय मांगने के अपराध का दोषी बता कर गिरफ्तार करवा देती है। जाकिया जाफरी वाले केस में, समाज सेवी सीतलवाड तथा अन्यों के साथ कुछ ऐसा ही हुआ था। भीमा कोरे गांव केस का षडयंत्र रच कर सरकार ने देश के बेहतरीन बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों तथा मानवाधिकारों के लिये लडऩे वालों को जेलों में बंद कर रखा है।

दरअसल न्याय शब्द का अर्थ इतना भी सरल नहीं है। कोई फैसला किसी के लिये न्याय तो दूसरे के लिये अन्याय हो जाता है। छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, उड़ीसा, दंडकारण्य आदि क्षेत्रों के अदिवासियों एवं ग्रामीणों को उनके क्षेत्रों से बेदखल करके उद्योगपतियों के हवाले कर दिया जाय तो यह उद्योगपतियों के लिये न्याय और खदेड़े गये भूमिपुत्रों के लिये अन्याय हो जाता है। यही ग्रामीण लोग जब अपने जल, जंगल व ज़मीन के अधिकार के लिये आवाज उठाते हैं तो इन्हें देशद्रोही, आतंकवादी एवं अपराधी घोषित कर दिया जाता है।

ऐसा ही कुछ शहरी औद्योगिक क्षेत्रों में भी होता है। फैक्ट्री मालिक व मज़दूर के बीच विवादों का सिलसिला चलता ही रहता है। इन झगड़ों से निपटने के लिये जिन कानूनों का निर्माण किया गया है वे भी खुद कारखाने द्वारा अथवा उनके प्रतिनिधियों द्वारा बनाये गये हैं।

अव्वल तो कानून बनाये ही ऐसे गये हैं कि मज़दूर जीत न सके और यदि उसके जीतने की कोई सम्भावना बनती नजर भी आये तो उसे हर तरह के हथकंडों द्वारा हरा दिया जाता है। मजदूर के मुकाबले कोर्ट में लाखों रुपये का वकील खड़ा कर दिया जाता है। महंगे वकील द्वारा परिभाषित कानून की व्याख्या, मजदूर के मुकाबले, जज को ज्यादा प्रभावित करती है। यहां भी जिसके हक में फैसला होता है, उसके लिये न्याय तथा हारने वाले के लिये अन्याय ही कहा जाता है।

इस संवाददाता का, बीते 30 वर्षों का व्यक्तिगत अनुभव यह है कि जिला स्तर की न्यायपालिका, पुलिस एवं सरकार की गुलामी करती है। पुलिस द्वारा किये गये काले-पीले कारनामों को कवर-अप करने का काम अधिक करती है।

जमानत देने का फैसला भी पुलिस से पूछ कर ही करती है। विशुद्ध बरी अथवा डिस्चार्ज होने वाले मुकदमों में भी महीनों नहीं सालों तक जेल कटवा देती है। न्यायिक प्रक्रिया अपने आप में ही किसी दण्ड से कम नहीं है। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने बातें तो बहुत सुन्दर-सुन्दर कही हैं अब देखना यह है कि वे किस हद तक कानून को दमन के औजार की अपेक्षा न्याय का औजार, किसके हक में बना पाते हैं? सरकार एवं पूंजीपतियों के हक में या जनसाधारण मज़दूर के हक में?

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Mazdoor Morcha
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