क्या उत्तर प्रदेश किसी जातिवादी विस्फोट के मुहाने पर खड़ा है? योगी शासन का शायद यही मानना है।

क्या उत्तर प्रदेश किसी जातिवादी विस्फोट के मुहाने पर खड़ा है? योगी शासन का शायद यही मानना है।
October 12 07:54 2020

पुलिस इन्वेस्टीगेशन में जातिवाद के लिए जगह नहीं

विकास नारायण राय (पूर्व डायरेक्टर, नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद)

क्या उत्तर प्रदेश किसी जातिवादी विस्फोट के मुहाने पर खड़ा है? योगी शासन का शायद यही मानना है।

हाथरस को पुलिस छावनी में बदल दिया गया है। वहां के 14 सितंबर के दलित बलात्कार-हत्या मामले में पुलिस इन्वेस्टीगेशन की दशा-दिशा को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक / राजनीतिक तनाव थमने का नाम नहीं ले रहा। व्यापक षड्यंत्र के नाम पर प्रदेश भर में दर्जनों मुकदमे दर्ज हुए हैं और तमाम गिरफ्तारियां भी। लेकिन, सरकारी पहल और सामान्य समझ के बीच जातिवादी आयामों की भूमिका के घुस जाने से कानून-व्यवस्था का पहलू इस कदर विषम हो गया है कि मुख्यमंत्री ने जिसे जातिगत तनाव बढ़ाने का षड्यंत्र करार दिया है, विरोधियों के लिए वह योगी शासन के जातिवादी तौर-तरीकों का ही विस्तार हुआ।

हाथरस के बलात्कार-हत्या इन्वेस्टीगेशन में कमियों पर अनेकों सवाल हैं। विरोधियों और विशेषज्ञों की ओर से ही नहीं स्वयं शासन की ओर से भी। इलाहबाद उच्च न्यायालय द्वारा मामले का 1 अक्तूबर को संज्ञान लेने के बाद हाथरस के पुलिस अधीक्षक (एसपी) समेत इन्वेस्टीगेशन से जुड़े 5 पुलिस अधिकारी निलंबित हुए, और ऐसे वीडियो सामने आये जिनके आधार पर जिलाधिकारी (डीएम) को पीडि़त पक्ष पर मीडिया से बात न करने का दबाव बनाने का गंभीर आरोप लगता रहा। उच्च न्यायालय ने वरिष्ठ पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारियों को 12 अक्तूबर सुनवाई के लिए बुला रखा है, मुख्यत: जानने के लिए कि पीडि़त के शव का रात के अँधेरे में, निकट परिवार को जबरन दूर रख कर, दाह संस्कार करने के पीछे क्या मंशा हो सकती है। आखिर प्रशासन क्या छिपाना चाहता है और किसके इशारे पर?

मंगलवार को उत्तर प्रदेश सरकार अपनी निष्पक्षता के दावे के साथ सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंची, यह प्रार्थना लेकर कि बलात्कार-हत्या इन्वेस्टीगेशन का जिम्मा सीबीआई को दे दिया जाए, जो सीधे सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में समय सीमा के भीतर कार्यभार संपन्न करे। जबकि पीडि़त पक्ष पहले ही केस को सीबीआई को दिए जाने के योगी के निर्देश को ठुकराकर सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर न्यायिक जांच की मांग कर चुका है। इस सुनवाई के दौरान, जो एक हफ्ते बाद जारी रहेगी, कई वकीलों ने सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में एक एसआईटी जांच की मांग कर डाली। बहरहाल, क्या इस ताबड़तोड़ पहल से योगी सरकार की नीयत पर सवाल खत्म हो जाएंगे या शक चलता रहेगा?

दरअसल, मुख्य अपराध के तथ्यों और निष्कर्षों को लेकर शुरू से ही दो विपरीत नैरेटिव चल रहे हैं। पहली नजर से ही समझ में आने लगता है जैसे सरकार और पुलिस ने आरोपी ठाकुर पक्ष के निर्दोष होने का विवरण मान लिया हो। एफआईआर में बलात्कार का जिक्र न करना और अपराध के 8 दिन बाद पीडि़त का मेडिकल कराना अगर काफी नहीं थे तो किसी काल्पनिक शांति भंग की हवाई आशंका में गुपचुप दाह संस्कार करना तो किसी के भी गले नहीं उतरेगा। पुलिस का फॉरेंसिक जांच में सीमेन न मिलने को ही बलात्कार न होने का पर्याय मान लेना और भी हास्यास्पद है। सर्वोच्च न्यायालय ने कितनी ही बार कहा है कि बलात्कार एक आपराधिक परिघटना है जो इन्वेस्टीगेशन से सिद्ध होगी, न कि महज मेडिकल या फॉरेंसिक जांच से। अन्यथा भी, 2013 में धारा 75 आईपीसी (बलात्कार की परिभाषा) में निर्भया संशोधन के बाद से सीमेन का मिलना नहीं, किसी भी अंग या वस्तु का बिना सहमति के प्रवेश ही निर्णायक होगा।

दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश पुलिस की ऐसी हठधर्मिता रही कि उनकी ओर से हाथरस के पीडि़त दलित पक्ष को ही कदम-कदम पर सफाई देने के लिए कहा गया- यहाँ तक कि झूठ पकडऩे वाला लाई डिटेक्टर टेस्ट और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किया जा चुका नारको टेस्ट तक लेने को। जबकि हाथरस काण्ड में मिली जबरदस्त प्रशासनिक किरकिरी के समानांतर ही प्रचार में आये बलरामपुर दलित बलात्कार-हत्या मामले में योगी के एडीजी, लॉ एंड आर्डर ने अपराध की गुरुता का हवाला देकर, दोनों मुस्लिम अपराधियों पर रासुका (राष्ट्रीय सुरक्षा कानून) लगाने की मंशा जाहिर कर डाली। हाथरस में चूक क्यों?

किसी गंभीर अपराध के इन्वेस्टीगेशन पर जातिवाद की छाया बेहद दुर्भाग्यपूर्ण कही जायेगी। यह राजनीतिक प्रवृत्ति पुलिस की जांच को तो पटरी से उतारेगी ही, समाज को भी कानूनी अनिश्चितता का शिकार बनाएगी। यहाँ फरीदाबाद, हरियाणा के सुनपेड़ गाँव काण्ड पर एक नजर डालना ठीक रहेगा, जिसमें 39 महीने की जांच-पड़ताल के बाद सीबीआई ने 2019 में कोर्ट में क्लोजर रिपोर्ट दी थी।

एफआईआर के मुताबिक 20 अक्टूबर 2015 की देर रात कुछ लोगों ने दलित समुदाय के जितेंद्र के घर में खिडक़ी से पेट्रोल डालकर आग लगा दी थी। इसमें उसकी 28 वर्षीय पत्नी रेखा गंभीर रूप से झुलस गई थी। जबकि उसके ढाई साल के बेटे वैभव और 11 महीने की बेटी दिव्या की मौत हो गई थी। 31 वर्षीय जितेंद्र भी झुलस गया था। मामले में, पुरानी रंजिश के चलते, गाँव के बलवंत इत्यादि ठाकुर समुदाय के 10 लोगों को नामजद किया गया था।

पीडि़त पक्ष की ओर से जिला पुलिस की एसआईटी से इन्वेस्टीगेशन सीबीआई को देने की मांग हुयी थी। सीबीआई ने पाया कि आग बाहर से नहीं, बल्कि अंदर से ही लगी है, जिस वजह से आरोपितों पर लगाए गए आरोप बेबुनियाद हैं। मामले में जातिवादी तूल ने सामाजिक तनाव को बेतरह बढ़ाया और इन्वेस्टीगेशन को बेवजह भटकाया। जबकि हरियाणा फॉरेंसिक एक्सपर्ट्स की 30 अक्टूबर 2015 को सौंपी रिपोर्ट के मुताबिक भी आग लगने की शुरुआत कमरे के भीतर से हुई थी और इसका स्रोत भी घर के भीतर ही था। जातिवाद, राजनीतिक हिंदुत्व की आत्मा सरीखा है। उसका ध्वंस महज संवैधानिक दायित्व नहीं, हिन्दू समाज का ऐतिहासिक कार्यभार भी है। ध्यान रहे कि सदियों तक राजनीतिक सत्ता से वंचित रहकर भी भारतीय भूभाग के समाज में जातिवाद फलता-फूलता रहा है।

हाथरस प्रकरण के सामाजिक और प्रशासनिक आयाम अनिवार्य रूप से रेखांकित करते हैं कि जातिवाद का अस्तित्व तभी मिटेगा जब पीढय़िों से भुगत रहे तबके इसके राजनीतिक-सांस्कृतिक एजेंडे के ध्वंस की दिशा में पलटवार की निर्णायक पहल कर सकें। तभी भारतीय समाज को इस दुरात्मा से मुक्ति मिलेगी। समाज में शांति, सुरक्षा और न्याय का यह रोडमैप बिना सामाजिक उथल-पुथल के तय नहीं किया जा सकता।

 

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Mazdoor Morcha
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