किसान आन्दोलन के समय ट्रेड यूनियनों की अनुपस्थिति…

किसान आन्दोलन के समय ट्रेड यूनियनों की अनुपस्थिति…
December 14 11:56 2020

 

सतीश कुमार

बेशक देश भर की तमाम ट्रेड यूनियनों (बीएमएस को छोडक़र) ने किसान आन्दोलन का समर्थन किया है, उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर सहयोग करने की बात कही है। 9 दिसम्बर के भारत बंद में साथ रह कर कारखाने बंद करने को कहा है, परन्तु धरातल पर कहीं कुछ नज़र नहीं आता। दरअसल ट्रेड यूनियनों के नाम पर केन्द्रीय ‘मठाधीशों ने समर्थन एवं बंद की घोषणा तो कर दी परन्तु इस घोषणा को अमली जामा पहनाने वाला काडर तो धरातल से गायब है, किसी एक का नहीं बल्कि सभी $फेडरेशनों का हाल लगभग एक जैसा है। $फरीदाबाद, गुडग़ांव तथा कुछ और जगहों पर सीटू वालों ने जरूर कुछ रस्म अदायगी करके सडक़ों पर हाजरी दर्ज कराई है, परन्तु ठोस एवं प्रभावी वे भी कुछ खास नहीं कर पाये। लाखों मज़दूरों के शहर में मात्र 50-100 लो$गों की रैली-प्रदर्शन क्या मायने रखती है?

सीटू ने चलो रस्म अदायगी तो की बाकी इन्टक, एटक, एचएमएस आदि की तो कहीं रस्म अदायगी भी नजर नहीं आई। हां एक छोटा सा नवजात संगठन इंकलाबी मज़दूर केन्द्र के लोग जरूर कुछ करते नज़र आये। बेशक उनकी संख्या कम रहती है परन्तु वे जन विरोधी मुद्दों का संज्ञान लेकर सदैव ही प्रदर्शन करते नज़र आ जाते हैं।

ट्रेड यूनियनों के राष्ट्रीय मुखिया जो अपने-अपने कार्यालयों से समर्थन एवं बंद का $फर्मान जारी करके निश्चिंत हो जाते हैं क्या उन्हें मालूम नहीं कि आज देश के 75 प्रतिशत से अधिक औद्योगिक मज़दूर किसी भी ट्रेड यूनियन के सदस्य नहीं रह गये हैं क्योंकि वे कैजुअल हैं या ठेकेदारी में हैं या ट्रेनी के नाम से अपनी मेहनत बेचने को मजबूर हैं। शेष बचे करीब 25 प्रतिशत भी केवल नामचारे को ही सदस्य रह गये हैं। उनके लिये यूनियन केवल अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति यानी अच्छे वेतन, बढिया सेवा शर्तों के साथ सुरक्षित नौकरी की गारंटी के अलावा कुछ भी नहीं है। उनके लिये ऐसा कोई भी संघर्ष बेमानी है जिसके द्वारा उन्हें व्यक्तिगत रूप से कुछ न मिलता हो, ऐसे में उन्हें क्या लेना किसानों के संघर्ष से? वे क्यों अपनी दिहाड़ी व उर्जा गंवाने लगे बिना मतलब के?

दरअसल इसके लिये मज़दूर कतई दोषी नहीं हैं, कोई दोषी है तो मज़दूर नेता जो मठाधीश बन कर यूनियनों पर कुंडली मारे बैठे हैं। मज़दूर को ट्रेड यूनियन का दर्शन एवं राजनीति पढाने तथा व्यापक मज़दूर वर्ग के भाईचारे के प्रति जागरूक करने की अपेक्षा अपने-अपने निजी हित साधने में जुटे हैं, तरह-तरह के व्यापार करने में व्यस्त हैं। इसी के चलते मज़दूरों के बीच उनकी इतनी साख और विश्वसनीयता भी नहीं बची है जो मज़दूर उनके आह्वान पर एकजुट होकर खड़े हो जायें। ‘बोये पेड़ बबूल के तो आम कहां से होएं’ वाली कहावत यहां पूरी तरह चरितार्थ होती है।

रेलवे इस देश का सबसे बड़ा सार्वजनिक उपक्रम है। मोदी राज से पूर्व इसमें 15 लाख कर्मचारी कार्यरत थे। लाखों पद रिक्त होने व नई भर्तियां न होने के चलते करीब चार लाख पद घट गये हैं। शायद ही कोई ऐसी राष्ट्रीय $फेडरेशन हो जिसकी यूनियन सदस्यता इस उपक्रम में न हो। किसी जमाने में अपनी प्रभावशाली छवि रखने व लम्बी हड़तालों के जरिये अपनी ताकत का प्रदर्शन कर चुकी रेलवे यूनियन भी आज मृत प्राय: है। आज के किसान आन्दोलन के पक्ष में जहां न केवल पूरे देश में बल्कि विदेशों तक में समर्थक सडक़ों पर उतर आये हैं, रेलवे की किसी भी यूनियन ने जबान तक भी नहीं हिलाई, हाथ-पैर हिलाना तो दूर की बात है।

दरअसल रेलवे यूनियन किसी और के लिये क्या संघर्ष करेंगी वे तो अपनी ही दुर्दशा पर रोने लायक नहीं बचे हैं। मोदी सरकार पूरी रेलवे को ही बेचने की तैयारी में जुटी है। इसके लिये जरूरी है कि कर्मचारियों की संख्या कम से कम करके इसे नये कार्पोरेट मालिकों को सौंपा जाए। कोई भी नया मालिक नहीं चाहता कि उसे उद्योग के साथ-साथ कर्मचारियों का बोझ भी ढोना पड़े। कार्पोरेट इन कर्मचारियों को बहुत महंगा, निकम्मा, हरामखोर व रिश्वतखोर मान कर चलता है। वह अपने हिसाब से अपनी पसंद के सस्ते से सस्ते कर्मचारी भर्ती करके रेलवे को चलाना चाहेगा। इसी की तैयारी में मोदी ने 50 प्रतिशत से अधिक ट्रेनें बंद कर छोड़ी हैं। जो बड़ी ट्रेनें चल भी रही हैं उनमें टिकट के दाम अनाप-शनाप बढाये जा रहे हैं। समझा जा रहा  है कि कम ट्रेनों के चलाने से आय में जो कमी आयेगी उसकी पूर्ति किराये बढा कर की जायेगी। यही कार्पोरेट मॉडल है।

कार्पोरेट मॉडल की सुविधाजनक स$फलता एवं मुना$फाखोरी को सुनिश्चित करने के लिये मोदी ने ट्रेनों की संख्या घटाई है। इसमें सबसे ज़्यादा काम आया कोरोना। कोरोना महामारी का भय दिखा कर दिल्ली-पलवल-मथुरा तक चलने वाली तमाम शटल एवं पैसेंजर ट्रेनें पहले तो अस्थाई रूप से बंद की गयी थी लेकिन अब वे स्थाई रूप से बंद कर दी गयी हैं। इन छोटी ट्रेनों से यात्रा करने वाले दैनिक यात्री, जो निम्न मध्य वर्ग के मेहनतकश होते हैं। इन यात्रियों की तर$फ से भी कोई आवाज न उठने के चलते सरकार ने, लगता है पक्का $फैसला कर लिया है इन ट्रेनों को स्थाई रूप से बंद करने का। इन ट्रेनों को बंद रखने की जरूरत इस लिये भी है कि कार्पोरेट्स द्वारा जो नई तीव्र गति की ट्रेनें चलाई जानी हैं, उनके लिये 100-100 किलोमीटर दूर तक लाइन क्लीयर मिलनी जरूरी है और बिना नई लाइनें डाले, यह तभी संभव हो सकता है जब आम जनता की छोटी व सस्ती ट्रनों को घाटे का सौदा बता कर बंद कर दिया जाय।

वैज्ञानिक समाजवाद के जनक कार्लमाकर््स ने लिखा था कि औद्योगिक मज़दूर संगठित होकर ट्रेड यूनियन बनायेंगे और क्रांति के हिरावल दस्ते के रूप में किसानों व अन्य मेहनतकश वर्ग की अगुवाई करेंगे। परन्तु अपने आपको माकर््सवादी ट्रेड यूनियन बताने वालों सहित तमाम ट्रेड यूनियनों ने उनके कथन को उल्टा कर दिया। आज किसान संघर्ष का हिरावल दस्ता बन कर उभर रहा है और ट्रेड यूनियन उनके पीछे घिसटने का खिसियाना प्रयास कर रही है।

 

 

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