गौरतलब : एक तरफ भाजपा की गोद में बैठा अर्नब,
दूसरी तरफ संघर्षरत मजदूर मोर्चा का मामला
आत्महत्या करने वाले द्वारा नामजद दोषी ठहराये जाने वाले अर्नब गोस्वामी की जायज गिरफ्तारी पर तमाम भाजपा नेताओं को इमरजेंसी की याद आ गयी। इस गिरफ्तारी को प्रेस की आज़ादी पर हमला बताने वाले तमाम भाजपाई नेताओं को केवल अपने पालतू अर्नब में ही लोकतंत्र का चौथा खंबा नज़र आता है।
14 अगस्त 2019 को एनआईटी फरीदाबाद के डीसीपी विक्रम कपूर ने गोली मार कर आत्महत्या कर ली थी। उनके सुसाइड नोट में मज़दूर मोर्चा सम्पादक सतीश कुमार का नाम तक न होने के बावजूद तत्कालीन सीपी संजय कुमार ने एफआईआर में उनका नाम घुसेड़ कर उन्हें गिरफ्तार करने के लिये अपनी सारी ताकत झोंक दी थी। उसने यह कार्यवाही ‘मोर्चा’ द्वारा उसके भ्रष्टाचार की खबरें प्रकाशित करने का बदला लेने के लिये की थी। करीब तीन सप्ताह पागल कुत्ते की तरह घूमती पुलिस से बचते बचाते संपादक सतीश ने हाई कोर्ट से राहत पाई। इसके बाद पुलिस तफतीश में शामिल होने पर पुलिस को भी उनके विरुद्ध कुछ नहीं मिला था।
यहां सवाल यह पैदा होता है कि सतीश का ‘मज़दूर मोर्चा’ क्या लोकतंत्र का चौथा खंबा नहीं था जो उस वक्त सारे भाजपाई नेता व मीडिया वाले मुंह में दही जमाये बैठे थे? उस वक्त उन्हें मीडिया एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जरूरत क्यों नहीं महसूस हुई?