मजदूर मोर्चा बयूरो पंजाब विधानसभा के होने वाले आगामी चुनाव लडऩे के लिये किसान नेता बलबीर सिंह राजोवाल के नेतृत्व में एक नई राजनीतिक पार्टी का गठन हो गया है। पंजाब के कुल 42 किसान संगठनों में से 32 तो इसमें शामिल हो चुके हैं शेष बचे 10 में से भी कुछ संगठनों के शामिल होने की प्रबल संभावना है। विदित है कि ये तमाम संगठन एकजुट होकर एक लम्बी लड़ाई जीत चुके हैं। किसानों की इस नई पार्टी को लेकर तरह-तरह की बातें सामने आ रही हैं। कोई इसे अमरेेन्द्र-भाजपा द्वारा खड़ी की गयी वोट कटवा पार्टी बता रहा है तो कोई इसे खालिस्तान से जोड़ कर देख रहे हैं।
सवाल यह पैदा होता है कि क्या किसान मज़दूर को अपने हितों की रक्षा के लिये सदैव धंधेबाज़ राजनीतिज्ञों का ही मुंह ताकते रहना पड़ेगा? बीते कम से कम 100 साल का इतिहास गवाह है कि सत्ता चाहे अंग्रेज की रही हो या कांग्रेस की अथवा अन्य दलों की, किसानों के हितों की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। हां, अंग्रेजी राज में बनी पंजाब की प्रांतीय सरकार चलाने वाली सरकार में बतौर मंत्री शामिल किसान नेता सर छोटू राम ने जरूर किसानों को बड़ी राहत प्रदान की थी। उसके बाद बंगाल में मार्कस्वादी सरकार ने बड़े कृषि सुधार करके किसानों को राहत दी थी जिसके बूते वे लोग तीन दशक से भी अधिक समय राज कर गये। इसके पीछे भी उस वक्त की सशक्त किसान सभा का ही बड़ा योगदान था। परन्तु तेज़ी से बदलते सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक हालातों में किसान हितों की रक्षा करने के लिये राजनीतिक सत्ता रूपी कवच की जरूरत हर समय बनी रहती है। इस कवच के न रहने पर किसान विरोधी ताकतें उन्हें फिर निचोडऩा शुरू कर देती हैं।
दिल्ली की सीमाओं पर एक साल तक धरना देने से करीब 6 माह पूर्व पंजाब के उक्त संगठनों ने संघर्ष की राह पकड़ ली थी। इस राह पर चलते हुए संगठनों को विस्तार देते हुए हरियाणा, यूपी, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार व महाराष्ट्र के किसान संगठनों के अलावा दक्षिण भारत के भी अनेक किसान संगठनों को जोड़ पाने में ये लोग कामयाब हुए थे। इन से इन संगठनों की संख्या 500 के करीब जा पहुंची तथा संघर्ष का स्वरूप राष्ट्रव्यापी हो गया। इतना ही नहीं किसानों के इस संघर्ष को देश की आम जनता ने भी आत्मसात कर लिया। उन्हें समझ आने लगा था कि मोदी सरकार किसानों के साथ-साथ देश भर की जनता को कुचलने का व्यापक षडयंत्र रचे बैठी है। आम जनता की इस बढती समझदारी व दिनों-दिन मज़बूत होते संघर्ष से घबरा कर मोदी सरकार को झुकना ही नहीं बल्कि लमलेट होना पड़ा।
इतिहास का सबक बताता है कि जब-जब सरकार में किसान- मज़दूर वर्ग की जितनी-जितनी भागीदारी रही है, उसके हितों को उतना-उतना लाभ हुआ है। बीते सात सालों से चल रही सरकार में किसान-मज़दूर की भागीदारी बिल्कुल नदारद हो जाने के चलते न केवल किसान विरोधी कानून पास कर दिये गये बल्कि लम्बे संघर्षों के बल पर मज़दूर वर्ग ने जो कानून अपने हक में बनवाये थे, जो सुविधायें प्राप्त की थी, एक-एक कर सब इस सरकार ने छीन ली। इतना ही नहीं रोने-पीटने व हड़ताल प्रदर्शन करने तक के लोकतांत्रिक अधिकार भी छीन लिये गये। इन हालात में यदि किसान-मज़दूर संगठन अपनी राजनीतिक पार्टी बना कर क्यों न उस सत्ता को ही हाथ में ले ले जो उनके हितों को बढावा भी दे सकती है और कुचल भी सकती हैं फिर किसाना को अपने हितों के लिये किसी के आगे हाथ नहीं फैलाने पड़ेंगे, किसी के रहमो-करम पर नहीं जीना पड़ेगा। वे अपने भाग्य के विधाता खुद ही रहेंगे। किसानों के इस आन्दोलन के दौरान भाजपा को छोड़ कर तमाम राजनीतिक दल उनके साथ एवं समर्थन में नज़र आये; यहां तक कि भाजपा संग सत्ता में शामिल अकाली दल भी सत्ता छोड़ कर उनके समर्थन में आ गया, बेशक देर से ही सही। किसान विरोधी कानून बनाते वक्त अकाली दल बेशक भाजपा के साथ रहा, लेकिन जब उसने किसान आन्दोलन के तेवर देखे तो उसे दीवार पर लिखी वह इबारत तुरंत समझ आ गयी जिसे समझने में मोदी को डेढ साल लग गया। बिहार की जेडीयू बेशक भाजपा के साथ सत्ता की साझेदारी करती रही लेकिन आन्दोलन के विरोध में न आ सकी। भाजपा की पूर्व सहयोगी शिव सेना तो खुल कर किसानों का समर्थन कर ही रही थी।
समझने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि यदि किसान विरोधी कानून कांग्रेस सहित, आज विपक्ष में बैठी किसी भी पार्टी ने बनाये होते तो भाजपा भी वही सब कर रही होती जो कुछ आज, कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दल कर रहे हैं। इससे स्पष्ट होता है कि इन तमाम पार्टियों का वर्ग चरित्र एक ही है, ये तमाम पूंजीवाद के समर्थक तो हैं ही, भ्रष्टाचार में भी आकंठ डूबे हैं। इनके लिये सत्ता प्राप्त करने का मतलब केवल देश को लूटने के अलावा कुछ भी नहीं। हां, भाजपा अपनी सत्ता एवं लूट को कायम रखने के लिये धर्म की अफीम और राष्ट्रवाद की घुट्टी कुछ ज्यादा ही इस्तेमाल करती रही है।
आज किसान आन्दोलन ने भाजपा के विरुद्ध जो माहौल बना दिया है, उसे देख कर तमाम विपक्षी दल किसानों का समर्थन लेकर सत्तारूढ होने की फिराक में हैं। बीते 75 सालों में देश ने मौजूदा सभी पार्टियों को भली-भांति देख परख लिया है। यहां तक कि आम आदमी पार्टी का वर्ग चरित्र भी काफी हद तक सामने आ चुका है। ऐसे में किसान आन्दोलन से तप कर किसान यदि एक नई पार्टी खड़ी करते हैं तो बुराई क्या है? इतिहास बताता है कि तमाम, मौजूदा पार्टियों का लक्ष्य लूट व घोटालों के अलावा और कुछ भी नहीं हो सकता ऐसे में, इनमें से कोई भी पार्टी सत्तारूढ हो जाये तो जनता को शोषण व उत्तपीडऩ से कोई राहत मिलने की सम्भावना नहीं है।