किसान महापंचायत: गैरराजनीतिक होने के बावजूद राजनीति की धुरी

किसान महापंचायत: गैरराजनीतिक होने के बावजूद राजनीति की धुरी
September 11 12:51 2021

मज़दूर मोर्चा ब्यूरो

बीते करीब नौ माह से चल रहे किसान आन्दोलन का एक विराट रूप पांच सितम्बर को मुजफ्फरनगर में देखने को मिला जहां हरियाणा, पंजाब, राजस्थान के अलावा अनेक राज्यों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। रिकॉर्डतोड़ भीड़ उस विशाल मैदान में नहीं समा पा रही थी जहां कभी पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह रैली किया करते थे। लाखों की यह भीड़ न केवल योगी सरकार की नींद हराम करने में कामयाब हुई बल्कि मोदी को भी पैरों तले ज़मीन खिसकती नज़र आने लगी है। मोदी सरकार द्वारा तीन कृषि कानूनों के विरोध को लेकर पंजाब से शुरू होने वाला किसान आन्दोलन बहुत समय तक पंजाब तक सीमित न रह सका और 26 नवम्बर को उसने राष्ट्रीय रूप लेना शुरू कर दिया। पंजाब के किसान जब दिल्ली की ओर बढने लगे तो किसी को गुमान तक न था कि हरियाणा व यूपी के किसान भी बढ-चढ कर दिल्ली की ओर कूच करने लगेंगे। भाजपाई भोंपुओं ने आन्दोलन को तोडऩे व बदनाम करने की जितनी कोशिश की, आन्दोलन उतना ही प्रबल होता चला गया। इन्हें आतंकवादी, खालिस्तानी, नकसली व मवाली तक बताया गया, लेकिन सरकार की हर चाल को विफल करते हुए आन्दोलन मज़बूती से आगे बढता रहा। दुनिया के इतिहास में आज तक का यह सब से लम्बा आन्दोलन माना जा रहा है।

मात्र तीन कृषि कानूनों के विरोध को लेकर चले इस आन्दोलन ने गैरराजनीतिक होते हुए भी देश की राजनीति व सामाजिक ताने बाने पर जबरदस्त प्रभाव डाला है, वह अद्वितीय है। सबसे पहले तो इस आन्दोलन ने भाजपा की उस साम्प्रदायिक राजनीति की रीढ तोड़ डाली जिसके बल पर इसने 2013 में हिन्दू-मुस्लिम दंगे करा कर 2014 का संसदीय व 2017 का यूपी विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जीता था। पीढी दर पीढी साथ रहने वाले हिन्दू-मुस्लिम को जिस शातिराना ढंग से भाजपा ने लड़ाया था, इस आन्दोलन ने इस लड़ाई को समाप्त करके सामाजिक भाईचारा फिर से बहाल करा दिया।

दुसरा बड़ा काम यह हुआ कि किसान जन साधारण यानी उपभोक्ता को यह समझाने में भी बहुत हद तक कामयाब रहा कि उक्त तीन कृषि कानून न केवल किसानों को तबाह करने वाले हैं बल्कि आम उपभोक्ता भी इसके भयंकर शिकार होने वाले हैं। आन्दोलन यह समझाने में कामयाब रहा कि उक्त कानूनों के चलते चंद देशी-विदेशी पूंजीपतियों का, तमाम कृषि उपजों की खरीद व बिक्री पर एकाधिकार होगा। यानी किसान से खरीदने का भाव भी वही तय करेंगे और उपभोक्ता को बेचने का भाव भी उनकी मुट्ठी में रहेगा। उदाहरण देकर समझाया जा रहा है कि किस अडाणी ने हिमाचल प्रदेश के सारे सेब व्यापार पर कब्ज़ा करके सेब उत्पादकों को रूला दिया है।

तीसरा और सबसे अहम मुद्दा किसानों ने आम जनता के सामने पूंजीवाद का वह घिनौना चेहरा बेनकाब कर दिया जिसे वह तरह-तरह के मेक-अप लगा कर छिपाये रहता था। आम आदमी की समझ में यह बखूबी बैठ गया कि किसान से 15 रुपये प्रति किलो के भाव से गेहूं खरीद कर के आटे को ये निर्मम पूंजीपति शानदार पैकेज करके 50 रुपये किलो बेचेगा। कोई विकल्प न होने की स्थिति में उन्हें यह आटा खरीदना ही पड़ेगा या भूखों मरना पड़ेगा। बाकी सब वस्तुऐं तो मुनाफाखोरी का साधन बनी ही हुई थी अब तमाम खाद्य पदार्थ भी इसी दायरे में आ जायेंगे। उनके इस दायरे को मज़बूत करने के लिये मोदी सरकार ने भंडारण की सीमायें तय करने वाले कानून को भी रद्द करते हुए किसी भी सीमा तक भंडारण की खुली छूट दे दी।

किसान आन्दोलन को गैरराजनीतिक इस लिये कहा जाता है कि यह न तो अपने आप में कोई राजनीतिक दल है और न ही किसी दल विशेष से बंधा है। यह आन्दोलन 500 से अधिक छोटे-मोटे संगठनों से मिल कर एक संयुक्त किसान मोर्चा बना है। परन्तु इसका यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि यह देश को बर्बाद करने पर उतारू भाजपा की राजनीति का विरोध न करे। बस इसी विरोध करने को लेकर सरकारी भोंपू इसे अब राजनीतिक की संज्ञा देने लगे हैं। दिन ब दिन सरकारी टैक्सों का भार जनता पर बढाया जा रहा है, हर चीज़ की महंगाई दिन ब दिन बढती जा रही है। देश की तमाम सम्पत्तियां बेची जा रही हैं, लोगों से उनकी नौकरियां व रोजगार छीने जा रहे हैं। इसके विरोध में जब कोई बोलता है तो सरकार पूरी बेशर्मी से कहती है कि लोगों ने उन्हें पांच साल के लिये चुन कर यही सब करने का अधिकार दिया है। जाहिर है, ऐसे में आज जब तमाम विपक्षी दल अपनी विश्वसनीयता खोकर नाकारा हो चूके हैं तो किसान आन्दोलन ने विपक्ष की भूमिका निभाते हुए इस सरकार पर वोट की चोट करने का फैसला गलत नहीं लिया है। इसी गैर राजनीतिक रणनीति के तहत चलते हुए किसानों का फिलहाल यही फैसला है कि भाजपा को वोट की चोट मारनी जरूरी है,बाकी जिसको चाहो वोट डालो। इसी रणनीति के ऊपर एक राजनीतिक धुरी आज बन चुकी है। तमाम गैर भाजपा दल गठबंधन बना कर भाजपा को सत्ता से बेदखल करने की योजनायें तेज़ी से बना रहे हैं।

मोदी की सीबीआई व इडी के डर के मारे जो नेता बिलों में घुसे हुए थे अब बाहर झांकने लगे हैं। हो सकता है कि इस ठेल-पेल में इन्हें भी आगामी सत्ता में कोई भागीदारी मिल जाये, परन्तु इतना तो तय है कि ये दल भी न तो किसानों का और न ही आम जनता का कोई भला करने वाले हैं। इनमें से किसी में इतना दम नज़र नहीं आता जो यह घोषणा कर सकें कि मोदी ने जो काले कारनामे किये हैं उन्हें पुन: अपनी स्थिति में लौटा लायेंगे, मोदी द्वारा बेचे गये राष्ट्रीय उपक्रम वापस पूंजीपतियों से छीन लायेंगे, बैंकों से लूटा गया पैसा लुटेरों से वसूल कर लेंगे, जो रोजगार खत्म कर दिये गये हैं उन्हें पुन: बहाल कर दिया जायेगा; पैट्रोलियम पर मोदी काल में बढाये गये शुल्क वापस लिये जायेंगे।

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