मोदी रूपी स्तम्भ पर टिकी भाजपाई सत्ता का उस दिन क्या होगा जिस दिन यह स्तम्भ ही धराशाही हो जायेगा? लगभग तमाम राज्यों के विधायक और सांसद मोदी के नाम पर वोट लेकर चुनाव जीत कर आये हैं। हर चुनाव में मोदी कहते रहे हैं कि अपने क्षेत्र से चुनाव लडऩे वाले को न देख कर केवल उनके चेहरे को देखें, यानी मतदाता अपने उम्मीदवार को वोट नहीं दे रहा वह तो केवल मोदी को वोट दे रहा है। ऐसे में भला चुनाव जीतने वाले सांसद एवं विधायक की क्या औकात रह सकती है? उसकी हैसियत एक राजनीतिक बंधक से अधिक कुछ नहीं हो सकती। वह अपने क्षेत्र में तो भले ही निजी स्वार्थों की पूर्ति एवं लूट-मार कर सकता है परन्तु सरकार की नीतियों एवं कार्यान्वयन में उसका कोई दखल नहीं रह पाता। इन हालात में चुने हुए जन प्रतिनिधियों का जनता से कट जाना स्वाभाविक है।
जब 56 इन्च की छाती वाला स्तम्भ जो कहता हो ‘मैं ही सब कुछ हूं’, धराशाही हो जाये तो उन बाकी लोगों का क्या होगा जो केवल उसी के बूते खड़े थे? जाहिर है, वे सब तो धूल की तरह उड़ जायेंगे। किसान आन्दोलन ने जिस तरह मोदी के घुटने टिकवाये हैं, उससे प्रकट हो रहा है कि फ़िलहाल टिके हुए घुटने बहुत जल्द टूटने वाले हैं। फासीवादी गुंडा-गिरोह की शक्ल अख्त्यार कर चुकी मोदी सरकार के राज में, तमाम जुल्मो सितम के बावजूद, आम लोग आन्दोलन करना भूल चुके थे। औद्योगिक मज़दूर, रेलवे और बैंक कर्मचारियों सहित किसी भी यूनियन को मुंह खोलने लायक नहीं छोड़ा गया था। नागरिकता कानून को लेकर चले आन्दोलन को मोदी सरकार ने कोरोना हथियार से कुचल दिया था।
इस सबके बावजूद पंजाब से उठी किसान आन्दोलन की एक छौटी सी लहर देखते ही देखते सुनामी बन गयी। मोदी गिरोह ने इसे हल्के में लेते हुए साम, दाम, दंड भेद की नीति अपनाते हुए हर तरह से कुचलने का प्रयास किया। परन्तु मोदी का हर प्रयास मानो इस आन्दोलन के लिये खाद-पानी का काम कर गया; मोदी की हर कुटिल चाल के बाद इसका स्वरूप निखरता गया और ताकत बढती गयी। मोदी की तमाम अपेक्षाओं के विरुद्ध आन्दोलन की बढती तपिश उनके लिये असहनीय होने लगी। यूपी का चुनाव उन्हें इस तपिश में जल कर राख होता नज़र आने लगा था, जिस मोदी के लिये भीड़ मोदी-मोदी चिल्लाते हुए स्वत: आया करती थी, अब दिहाड़ी व खाना-खुराक देकर बसों में लाद कर लानी पड़ रही है और यह भीड़ भी रैली में बैठने के बजाय इधर-उधर भटकती दिखी।
दीवार पर लिखी इस इबारत को समझ कर मोदी ने किसानों के आगे घुटने टेक कर किसान आन्दोलन की तपिश को समाप्त करना चाहा था, परन्तु आन्दोलन की यह आग तो जंगल की उस आग की तरह फैलने लगी जिस पर डाला गया पानी भी पेट्रोल का सा काम करने लगता है। किसान आन्दोलन समाप्त होने की बजाय मजबूत होने लगा, इतना ही नहीं जो बैंक कर्मी, रेलवे कर्मी तथा अन्य सताये हुए मज़दूर संगठन आन्दोलन करने से डरते थे, अब उनके हौसले भी बुलंद होने लगे। शीघ्र ही डरे, थमे आन्दोलनों की बाढ आने के पूरे आसार नज़र आ रहे हैं। हालात ठीक उस मरखने सांड जैसे बनते नज़र आ रहे हैं जिसे देख कर सब लोग डर के मारे रास्ता छोड़ देते थे। परन्तु जब ग्रामीणों ने एकजुट होकर लठ उठाये तो सांड भाग खड़ा हुआ। और भागते हुए सांड को लोगों द्वारा खूब लठियाया भी गया।
आने वाले चुनावों में यू पी, उत्तराखंड, पंजाब व गोआ के जो हालात नज़र आ रहे हैं, भाजपा का सूपड़ा पूरी तरह साफ होने वाला है। जिस व्यक्तिगत करिश्में के घमंड में मोदी उछलते घूम रहे थे, उसके धराशाही होने के बाद उन सब मंत्रियों सांसदों व विधायकों का उठ खड़ा होना स्वाभाविक है जो आज मोदी के सामने घुटनों पर रहते हैं। कहने को तो लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी सरीखे चंद वयोवृद्ध नेता ही मार्ग दर्शक मंडल में बैठाये गये हैं, परन्तु वास्तव में अमितशाह व नितिन गडकरी को छोड़ कर तमाम मंत्री, सांसद व भाजपाई मुख्यमंत्री मार्ग दर्शक मंडल में ही बैठा दिये गये हैं। ये तमाम मोदी की हां में हां मिलाने और उनके इशारों पर नाचने मात्र को रह गये हैं।
लेकिन मार्च 2022 में जब करिश्मे का ढोल फट जाये तो मार्ग दर्शक मंडल में बैठे तमाम लोग यदि अपने आप को आजाद घाषित कर दें और खुद राजनीतिक फैसले लेने लगें तो कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिये। ऐसा करना उनकी राजनीतिक मजबूरी होगी क्योंकि जिस मोदी तिलिस्म के सहारे वे राजनीति करते आ रहे थे, उसके खत्म हो जाने पर, अपनी राजनीति बचाने के लिये उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होना ही होगा। यदि ऐसा होता है तो पूरी भाजपा में भगदड़ मचनी स्वाभाविक है। ऐसे हालात में मोदी की सरकार कितने दिन ठहर पायेगी, 2024 के लोकसभा चुनाव तक भी चल पायेगी, यह एक बड़ा प्रश्न है। जब मोदी सरकार ही संकट में आ जायेगी तो हरियाणा व मध्य प्रदेश जैसी डांवाडोल सरकारें कैसे टिकी रह सकेंगी यह और भी बड़ा प्रश्न है।