‘इंदिरा नगर’ के मज़दूरों ने चौटाला सरकार को भी धूल चटाई थी

‘इंदिरा नगर’ के मज़दूरों ने चौटाला सरकार को भी धूल चटाई थी
October 30 07:52 2022

नरेश एवं सत्यवीर सिंह
पश्चिम में रेलवे लाइन, पूरब में दिल्ली आगरा नेशनल हाईवे और उत्तर-दक्षिण, दोनों तरफ विशालकाय कारखाने से घिरी, झुग्गी बस्ती है, ‘इंदिरा नगर’। एक वर्ग किमी में बसी, मजदूरों की यह बस्ती लगभग 5 दशक पुरानी है। यहां बसने वाले मजदूर, फरीदाबाद के तमाम कारखानों में अपना खून-पसीना जलाकर पूंजीवादी विकास को गति देते हैं, लेकिन खुद का जीवन बेहद नारकीय बना हुआ है।

बस्ती में ना पीने के पानी की सुविधा है, ना इस्तेमाल के बाद पानी निकलने की कोई वाजिब व्यवस्था है। सीवर का गन्दा पानी चारों तरफ गलियों, सडक़ों पर फैला रहता है. भयानक बदबू और बीमारी फैलाने वाले कीटाणुओं के जमावड़े में रहने को मजबूर, मजदूर आबादी चुनाव के दिनों में अवतरित होने वाले तमाम पार्टियों के नेताओं के भाषण, वादे-आश्वासन सैकड़ों दफा सुन चुका है, लेकिन बस्ती में मूलभूत सुविधाएं लगातार नदारद ही रही हैं। नगर के कुछ समाजसेवी लोगों के प्रयासों से एक छोटा सा प्राइमरी स्कूल तो बस्ती में आया, लेकिन अस्पताल, डिस्पेंसरी जैसी चीजों का कोई जिक्र भी यहाँ कभी नहीं हुआ। बस्ती में लगभग 2000 राशन कार्ड धारक परिवार हैं, और बिना राशन कार्ड वाले भी लगभग इतने ही होंगे। लगभग 15000 की आबादी सिर्फ 1 वर्ग किमी के दायरे में घुट-घुट कर, किसी तरह जीवित हैं। बस्ती में रहने वाले कई सारे लोगों ने बस्ती में ही अपना रोजगार बना लिया है। छोटी-छोटी दुकानें, बस्ती से बाहर हाईवे के किनारे, खोखे-रेडियाँ लगाकर छोटे-मोटे सामान की बिक्री, साइकिल मरम्मत कर, किसी तरह अपना गुजारा करने को मज़बूर हैं।
फरीदाबाद के तमाम बस्तियों की तरह, इस बस्ती पर भी शासन प्रशासन और पूंजीपतियों का हमला दर्जनों बार हुआ है और उतनी ही बार यहां के मज़दूरों ने शानदार जवाब दिया है। सबसे शानदार जवाब दिया गया था, जब हरियाणा में ओमप्रकाश चौटाला की सरकार थी। कई बस्तियों को तोडऩे का फरमान उसने जारी किया था।

इंदिरा नगर के लोगों ने, लेकिन, सरकार से दो-दो हाथ करने की ठान ली थी। एक सुबह बस्ती के बाहर, रेलवे फाटक के समीप, आमने-सामने के मुकाबले में लोगों ने अपना मोर्चा लगाया था। दूसरी तरफ़, सैकड़ों की संख्या में पुलिस बल, बुलडोजर जेसीबी मशीनें, वज्र वाहन, अग्निशामक वाहन, आंसू गैस से लैश, पुलिस बल हमलावर अंदाज़ में मौजूद थे। मंच से, बस्ती के कुछ नेतृत्व कारी साथी, बस्ती के लोगों में हौसलों का संचार कर रहे थे। दूसरी तरफ़, सरकारी अमला बस्ती के लोगों में भय कायम करने की कोशिश कर रहा था। लगभग 3 घंटे तक आमने-सामने की टक्कर चलती रही. तब ही, एक पत्थर ने शांत माहौल को बेहद गर्म कर दिया। पुलिस की तरफ से लाठीचार्ज और आंसू गैस और लोगों की तरफ से भी अपने बचाव में पथराव, संघर्ष का बिगुल बज गया था।

मज़दूरों ने जब डरने से इंकार कर दिया, तब 2 घंटे की अफरातफरी के बाद शासन-प्रशासन ने वापस जाने का फैसला लिया. बस्ती के लोगों में विजयोल्लास की लहर दौड़ गई। इंदिरा नगर के आलावा, आस-पास की अन्य बस्तियों, जैसे उससे लगी हुई मज़दूर बस्ती, आज़ाद नगर के लोग भी इस संघर्ष में शामिल हुए थे। एक भी मज़दूर ऐसा नहीं था जिसने लाठी की चोट और आंसू गैस का जहर अपने आंखों में ना झेला हो। पिछले दिनों से लगातार शासन- प्रशासन ने विशेष युद्ध-नीति बनाई है। सारी बस्तियों को एक साथ तोडऩा असंभव है, इसलिए हर बस्ती के थोड़े- थोड़े हिस्से को, कई बार में, बारी-बारी तोड़ा जाए। इसी क्रम में पिछले दिनों आजाद नगर व अन्य बस्तियों के साथ-साथ इंदिरानगर का भी कुछ हिस्सा रेलवे प्रशासन द्वारा तोड़ डाला गया। जिन लोगों के मकान टूटे वे गिनती में बहुत कम थे। इसलिए कोई वाजिब प्रतिरोध खड़ा नहीं हो पाया।

जिनके घर टूटते हैं, उनको कोई वाजिब मुआवज़ा मिलना चाहिए, ये विषय तो अब सरकार के अजेंडे में रह ही नहीं गया है। सरकार ने मज़दूरों के विरुद्ध एक युद्ध जैसा छेड़ा हुआ है।

सारी मज़दूर बस्तियों को उजाडऩे का कार्यक्रम सरकारों के अजेंडे में है, लेकिन वे इस ‘प्रोजेक्ट’ को इस तरह पूरा करना चाहते हैं कि जिससे मज़दूर इकट्ठे होकर विद्रोह ना करें। सर पर छत बनाने की क़ीमत, जिस मज़दूर ने अक्षरस: अपने खून-पसीने से चुकाई हो, जाने कितनी मुसीबतें झेली हों, वह शांत खड़ा अपने घर को टूटता देखता रहेगा और संविधान का जयकारा लगाता रहेगा; ऐसा मुमकिन नहीं। मज़दूर जहाँ इकठ्ठा हो पाते हैं, अपनी जान पर खेलकर तोड़-फोड़ दस्ते का मुक़ाबला करने को सडक़ पर उतर जाते हैं, वहां दूसरी बस्तियों के मज़दूर, सामाजिक सरोकार रखने वाले लोग और मज़दूर यूनियनें भी उनके साथ खड़े  हो जाते हैं। ये दृश्य सरकारों को, भले वे डबल इंजन वाली हों या ट्रिपल इंजन वाली, भयभीत कर देता है। तब वे पीछे हट जाती हैं। पीछे हटते वक़्त भी, वे जानती हैं कि ये ‘रणनीतिक वापसी’ (strategic retreat) है। वे फिर आएँगे, क्योंकि बस्ती को तो उजाडऩा ही है, वरना वह बेशकीमती ज़मीन मॉल बनाने, मल्टीप्लेक्स बनाने, रईसों के लिए बंगले बनाने के लिए, कॉर्पोरेट के हवाले कैसे होगा? ‘विकास’ कैसे होगा? जी डी पी कैसे बढ़ेगी? ऐसी रणनीतियां युद्ध जीतने के लिए ही बनती हैं. बीच-बीच में, नेता झूठ बोलते-जाते हैं कि ‘2022 तक जहाँ झुग्गी वहां पक्का मकान’ योजना लांच हो चुकी है। 2022 आ जाए तो उसकी जगह ‘2029’ बोल दिया जाता है, फिर ‘2047’, जिससे गऱीब मज़दूर की आँखों से पक्के मकान का सपना ओझल ना होने पाए।

मज़दूर बस्तियों को बचाने की लड़ाई उतनी ही पुरानी है, जितनी बस्तियों के बसने की उम्र है। बस्ती बचाने के संघर्ष में, जहाँ, कई बार शानदार नेतृत्वकारी लोग सामने आए हैं, वहीँ, कई बार इस लड़ाई के नेतृत्व में दलाल और फर्जी ‘राजनेताओं’, सरकारी गुर्गों का क़ब्ज़ा भी हो जाता है। लगभग 8-9 साल पहले इंदिरा नगर के लोगों को लेकर, वालिया नाम के एक व्यक्ति ने, नगर निगम कार्यालय के बाहर महीनों तक एक धरना चलाया था। मोदी जी के अंदाज़ में, उनकी मांगों में सबसे अहम थी; जहां झुग्गी, वहीं पक्का मकान। मुख्यत: इंदिरानगर, और तमाम अन्य बस्तियों के लोग भी लगातार कई महीनों तक उस धरने में उक्त वालिया का साथ देते रहे। लोग इस बात को समझ नहीं पाए, की लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं, और यह वालिया, झुग्गी बस्ती के लोगों को इकट्ठा  कर, सिर्फ लोकसभा में खड़े उम्मीदवारों से मोलभाव कर अपने लिए कुछ ‘माल’ कूटना चाहता है।

अंतत: ऐसा ही हुआ. जैसे ही चुनाव निबटे, वह धरना भी निबट गया। 2024 के लोकसभा चुनाव नज़दीक आते जा रहे हैं और ये चुनाव फासिस्ट गिरोह और देश के मेहनतक़श अवाम, दोनों के लिए बहुत निर्णायक हैं। इस बार भी ये नफरती-उन्मादी ज़मात जीत गई तो फिर मोदी जी ‘अवतार’ का दर्जा पा जाएँगे। फासीवादी घटाटोप सर्वग्राही हो जाएगा, ये फोड़ा पक जाएगा, अँधेरा घनघोर हो जाएगा। इसलिए जल्दी ही कोई दूसरा ‘वालिया’ प्रकट हो सकता है।

आज़ाद नगर और इंदिरा नगर मज़दूर बस्तियां टूटने से बच गईं, जबकि लाखों लोगों वाली खोरी बस्ती, जमाई कॉलोनी, संजय कॉलोनी, बुढिय़ा नाले के पास वाली बस्ती और बाई पास रोड पर अनेकों मज़दूर बस्तियां टूट गईं।

ऐसा क्यों हुआ? दोनों में मुख्य अंतर क्या हुआ? उत्तर ढूँढऩा मुश्किल नहीं. आज़ाद नगर, इंदिरा नगर के मज़दूर इकट्ठे  हुए और इकट्ठे होकर लडऩे, मरने-मारने को तैयार हुए। ‘जहाँ झुग्गी वहां पक्का माकन’ के झांसे में नहीं आए। उसके बाद ही उनके समर्थन में हजारों लोग साथ आए। ये आग दूर तक ना फ़ैल जाए, कहीं शोषण का पूरा निज़ाम ही खतरे में ना आ जाए, इसलिए सरकार, अपने पुलिस बल के साथ पीछे हट गई। दूसरी ओर, खोरी बस्ती पूरी की पूरी टूट गई, एक बार भी आक्रामक सरकारी अमले को पीछे नहीं हटना पड़ा। ‘हर रोज़ 1000 झुग्गियां तोडऩी हैं’, फरीदाबाद नगर निगम का लक्ष्य पूरा होता गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि खोरी बस्ती के मज़दूर लडऩे को तैयार नहीं हुए। सडक़ पर आए भी, तो डरते हुए क्योंकि उनके ज़हन में ‘डबुआ कॉलोनी के फ़्लैट मिलेंगे’ वाला ख़्वाब मौजूद बना रहा जिसने उन्हें लडऩे से रोक दिया। सरकारी झांसे में आकर, लाखों लोग, बरसात के मौसम में, कोरोना महामारी के बीच चुपचाप अपने घरों को टूटता देखते रहे और फिर अदृश्य हो गए। मज़दूरों की लड़ाई, अगर मज़दूर ही लडऩे से मना कर दें, तो साथ देने वाले कभी नहीं लड़ पाएँगे। वर्ग चेतना विहीन किसी दूसरे सामाजिक वर्ग के सामने तो विकल्प अभी मौजूद है; आज लड़े या एक-दो साल बाद, लेकिन मज़दूर के सामने अब लडऩे के सिवा विकल्प नहीं।

जहाँ तक ‘इंदिरा नगर’ की समस्याओं का सवाल है, सरकार अच्छी तरह जानती है। ये कोई रॉकेट साइंस नहीं है। सडकों की तत्काल मरम्मत, सीवर, स्कूल, ईलाज की सुविधा, शौचालय, बच्चों के खेलने के साधन, साफ- सफ़ाई, पीने का स्वच्छ पानी मुहैया कराना, और गन्दा पानी इकठ्ठा ना होने देना, गऱीबी, बेरोजग़ारी, मंहगाई, इन्सान के रहने लायक़ घर जहाँ, कभी भी बुलडोजऱ आ सकते हैं, ये डर ना हो। मज़दूर चैन-सुकून के पल बिता सकें। इन समस्याओं को मज़दूरों को उठाते जाना है, संगठित होते जाना है, लड़ते जाना है क्योंकि इनकी पूर्ती तो समाजवादी व्यवस्था में ही संभव है।

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Mazdoor Morcha
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