ग्वालियर (ममो): नवम्बर 2019 में ग्वालियर निवासी उपेन्द्र भदौरिया ने ग्वालियर, एजी चौक स्थित मारुति डीलर प्रेम मोटर्स से मारुति की ब्रीजा कार खरीदी जिसकी कंपनी द्वारा दी गई वारंटी 2 साल व चालीस हजार किलोमीटर थी। उपेन्द्र पेशे से एक सैनिक हैं और बीएसएफ टेकनपुर ग्वालियर में तैनात हैं। अचानक गाड़ी खराब हुई और वारंंटी पीरीयड में होने के नाते सर्विस सेंटेर भेज दी। मारुति के सर्विस सेंटर ने जांच के नाम पर 7 दिन निकालने के बाद उपेन्द्र को बताया कि उनकी गाड़ी का इंजन सीज हो गया है और उसमे गलती मारुति कंपनी की नहीं है। इंजन सीज होने के पीछे कंपनी ने गाड़ी में इस्तेमाल किये गए तेल की गुणवत्ता पर सवाल उठाया और कहा कि उन्होंने लैब में टेस्ट किया है, जो तेल उपेन्द्र ने अपनी गाड़ी में इस्तेमाल किया है वह घटिया क्वालिटी का है।
उपेन्द्र ने कंपनी से पूछा कि घर की बाकी गाडिय़ों में भी तो तेल उसी पेट्रोल पंप से डाल जाता है तो वह क्यों नहीं खराब होतीं? वहीं पेट्रोल पम्प मालिक ने मारुति को चुनौती दी है कि वह उसके तेल में कमी है इसे सिद्ध करे।
अब कुल जमा कंपनी ने उपेन्द्र को ऑफर दिया है कि गाड़ी इंजन बनवाई की 70 प्रतिशत रकम कंपनी गुडविल के तौर पर दे देगी और बाकी बची 30 प्रतिशत रकम उपेन्द्र को देने होंगे जो लगभग 40 हजार हैं। परेशान होकर उपेन्द्र ने अपने एक मित्र को फोन किया जिसने उन्हे उपभोक्ता कोर्ट जाने की सलाह दी है। कोर्ट के नाम पर उपेन्द्र को बिल्कुल भरोसा नहीं कि वहाँ न्याय मिलेगा और यदि मिलेगा भी तो किस कीमत पर। क्योंकि गाड़ी बिना सभी काम अटके पड़े हैं और कोर्ट के चक्कर कितने साल चलेंगे इसका कुछ अंदाज ही नहीं।
कुछ लोगों को लगता है कि उपेन्द्र जैसे सैनिक के साथ कंपनी धोखा कर सकती है पर किसी बहुत समझदार और कानून के ज्ञात के साथ नहीं। इस भ्रम में कई सरकारी अधिकारी जैसे आईपीएस और आईएएस भी होंगे, क्योंकि समाज इन्हे लेकर ऐसा ही सोचता है। दिल्ली पुलिस स्पेशल कमिशनर रंजीत नारायण के साथ वर्षों पूर्व ठीक इसी प्रकार की घटना मारुति गुडग़ाँव में घटी। घटना के समय रंजीत नारायण केरल में तैनात थे और उन्हे भी कंपनी से वारंटी पाने के लिए हरियाणा के एक कद्दावर आईपीएस से पैरवी कर कंपनी पर दबाव बनवाना पड़ा।
कृषि कानून के खिलाफ होने वाले किसान आंदोलन में एक बड़ा कारण अनुबंध कृषि भी है। जहां एक तरफ किसान अनुबंध कृषि से जुड़े नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ सरकार और सरकार द्वारा पोषित मीडिया अनुबंध की व्यवस्था को बेहतर बताते हुए यह भी दलील दे रही है कि कान्ट्रैक्ट खेती पहले से ही चलती आ रही है तो अब उसका विरोध क्यों? सरकार की यह बात सही है परंतु विरोध क्यों का जवाब मजदूर मोर्चा की इस रिपोर्ट से सरकार और नागरिक दोनों समझ सकते हैं।
उपेन्द्र प्रशासन व्यवस्था के निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति हैं तो रंजीत नारायण इसी व्यवस्था के उच्चतम पायदान के आईपीएस अधिकारी। परंतु व्यवस्था दोनों में से किसी का भी साथ न देकर सिर्फ और सिर्फ उस कंपनी का साथ देती नजर आती है जिनकी जेबों में नेताओं की फौज से लेकर सभी गरम हो रहे हैं। रही सही कसर न्यायपालिकाएं पूरा कर देती हैं।
न्यायपालिका पर आम आदमी का भरोसा ही नहीं और कंपनियां खुलेआम वादाखिलाफी करती घूम रही हैं। ऐसे में कृषि बिलों पर यदि किसान न्यायपालिका नहीं जा सकता और एक एसडीएम स्तर का अधिकारी ही फैसला करने का अधिकारी होगा तो आपको बताते चलें ऐसे एसडीएम गाला डिनर में कंपनी मालिकों के जाम भरते पाए जाते रहे हैं।
किसान को तो पता है कि लिखित कान्ट्रैक्ट का लॉलीपोप और ये कानून किसके लिए हैं। खैर, कुल जमा गाड़ी खरीदते वक्त सभी जानकारी लिखित में प्राप्त करने के साथ सोचते रहे कि क्या व्यवस्था की ये सूरत बदलनी चाहिए या लिखित में लेने से भी काम चल पाएगा?