क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा जल्दी ही सरकारी-दरबारी भोंपू बजने शुरू होने वाले हैं; ‘बेरोजग़ारी कम हो गई- बेरोजग़ारी कम हो गई’। असलियत क्या है? 140.8 करोड़ की जनसंख्या वाले हमारे देश में काम करने योग्य लोग मतलब जिनकी उम्र 14 से 64 साल के बीच है 93.33 करोड़ हैं। ‘श्रम भागीदारी दर’ मतलब काम करने योग्य लोगों में काम पर लगे लोगों की दर 2017-18 में अभी तक के इतिहास में सबसे कम 36.9 प्रतिशत थी जो 2022-23 में बढक़र 42.2 फीसदी हो गई। इस प्रतिशत से देश में बेरोजग़ारों की कुल तादाद की गणना की जा सकती है। 2017-18 मे देश में कुल 56.9 करोड़ लोग बेरोजग़ार थे, जिनकी तादाद 2022-23 में घटकर 53.9 करोड़ रह गई।
‘श्रम भागीदारी दर’ में हुई, इस 5.3 प्रतिशत की भारी वृद्धि की वजह क्या है? उत्तर जानते ही समझ आ जाएगा, कि देश में कंगाली का आलम कितना भयावह है। इस वृद्धि की वजह है महिला श्रमिकों का ‘श्रम भागीदारी दर’ में अभूतपूर्व उछाल। ग्रामीण क्षेत्र में ‘महिला भागीदारी दर’ इसी 5 साल की अवधि मतलब 2017-18 से 2022-23 के बीच 18.2 प्रतिशत से बढक़र 30.5 प्रतिशत हो गई!! इसका मतलब, ग्रामीण क्षेत्र में इसी 5 साल की अवधि में कुल 5.6 करोड़ महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें पहले काम करने की ज़रूरत नहीं थी लेकिन आज ज़रूरत है। उसके बगैर चूल्हा नहीं जलेगा। मध्यम वर्ग की एक और काफ़ी मोटी परत पिघलकर मज़दूर बन गई।
दिलचस्प हकीक़त ये है कि महिला भागीदारों की ये वृद्धि उन राज्यों जैसे गुजरात और कर्णाटक जिन्हें संपन्न होने का ढिंढोरा पीटा जाता है और उड़ीसा, बिहार, यूपी आदि में समान दर से बढ़ी है।
श्रम भागीदारी दर में हुई यह बढ़ोत्तरी शिक्षित तथा अशिक्षित लोगों सभी में लगभग समान हुई है। महिलाओं की ‘श्रम भागीदार दर’ बढऩे का हमारा पिछला रिकॉर्ड भी यही दर्शाता है कि जब-जब देश में ख़ासतौर पर ग्रामीण क्षेत्र में कंगाली बढ़ी है, गुजारा करने के लिए महिलाओं को काम पर निकलना पड़ा है। 1999-2004 में भी ऐसा ही हुआ था। वह भाजपा-संघ का पहला वाजपेयी वाला शासन था। बेरोजग़ारी कम होने की इस कड़वी सच्चाई का एक और बहुत पीड़ादायक पहलू है। यह बढ़ोत्तरी मासिक वेतन पाने वाली महिलाओं में नहीं बल्कि स्व-रोजग़ार में लगी महिलाओं की संख्या में हुई है। 2017-18 से 2022-23 के बीच ग्रामीण क्षेत्र में स्व-रोजग़ार में लगी महिलाओं की तादाद 58 प्रतिशत से बढक़र 71 प्रतिात हो गई।
हमारे देश में घरेलू काम करने वाले श्रमिकों को वेतनभोगी मज़दूरों में नहीं गिना जाता बल्कि उन्हें स्व-रोजग़ार कहा जाता है। यह वृद्धि, ग्रामीण क्षेत्र में भी शहरों की तरह घरेलू काम करने वाली महिलाओं सहायक श्रमिकों की कुल तादाद में ही हुई है। पहले ये ट्रेंड मौजूद नहीं था। ग्रामीण क्षेत्र में घर का चौका-बर्तन, कपड़े धोना आदि में घरेलू कामगार बहुत कम होते थे। इस सम्बन्ध में एक और आंकड़ा गौर करने लायक है। ग्रामीण क्षेत्र में महिला स्व-रोजग़ार में ये वृद्धि अभूतपूर्व है लेकिन उनकी कुल मासिक आय इस 5 साल की अवधि में 3921 रुपये मासिक से 5056 रुपये मासिक ही हुई है जो कि मंहगाई दर से भी कम है। रोजग़ारों की तादाद बढ़ी है आमदनी नहीं बढ़ी!! ग्रामीण रोजग़ार योजना मनरेगा में भी महिलाओं की मज़दूरी की दर 53.5 प्रतिशत से बढक़र 57.5 प्रतिशत हो गई है। यह आंकड़ा भी देश में विकराल होती जा रही कंगाली को ही दर्शाता है। बहुत ही महत्वपूर्ण चुनावों वाला साल है। चमकीली पन्नी में लिपटी ख़बरों को पन्नी हटाकर उसकी तह तक जाकर पढ़े जाने तथा जो ऐसा नहीं करते चुनावी ताम-झाम देखकर मन्त्र मुग्ध हो जाते हैं उन्हें अच्छी तरह समझाने की ज़रूरत है।