नई शिक्षा नीति मतलब शिक्षा को कॉरपोरेट घरानों को सौंप देना
राजीव रे अध्यक्ष, राजिंदर सिंह सचिव
दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स असोसिएशन (ड्यूटा) ने महामारी के दौरान नई शिक्षा नीति को केबिनेट की मंजूरी पर गहरा एतराज़ जताया है। परीक्षाएं आयोजित करने की सरकार की जिद जो स्टूडेंट्स के लिए भेदभाव भरी और बहिष्कृत करने वाली है, ने शिक्षण संस्थानों में संकट गहरा दिया है। इंटरनेट, उपकरणों, किताबों और दूसरे शैक्षणिक स्रोतों की पहुंच से दूर अपने घरों में फंसे करोड़ों छात्रों को सुविधाएं मुहैया कराने में सरकार की भारी नाकामी के मद्देनजऱ यह और ज़्यादा गंभीर है। एक ऐसे देश में जहाँ एक बड़े तबके के लिए शिक्षा पाने की चाह जिन्दगी की बेहतरी से जुड़ी है, ऑनलाइन शिक्षा के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए महामारी का ऐसा सिनीकल इस्तेमाल भयानक है।
डूटा नई शिक्षा नीति के मसौदे की दूसरी चीजों के साथ विश्वविद्यालयों और हर उच्च शिक्षण संस्थान को बोर्ड ऑफ गवर्नर्स को सौंपने जिसका मकसद महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों, यहाँ तक कि यूजीसी और दूसरी रेग्यूलेटिंग ऑथोरिटीज में निहित सभी शक्तियों का आनंद लेना है, के प्रस्ताव का विरोध करती है। हर बोर्ड ऑफ गवर्नर को इन मामलों में निरंकुश शक्तियाँ हासिल होंगी-
(1) शैक्षणिक लक्ष्य निर्धारित करना। (2) अकादमिक कार्यक्रम शुरू और बंद करना। (3) छात्रों के प्रवेश और शिक्षकों की भर्ती की संख्या निर्धारित करना। (4) छात्रों की फीस। (5) शिक्षकों की योग्यता पात्रता, भर्ती, वेतन संरचना, पदोन्नति और सेवा निरंतरता और समाप्ति के तरीके।
स्वायत्तता को अनुकूलन की स्वतंत्रता के रूप में पुनर्परिभाषित किया गया है। बोर्ड ऑफ गवर्नर्स का पुनर्परिभाषित स्वायत्ता के साथ सशक्तीकरण व्यापार को नियंत्रणमुक्त करने वाले नवउदारवादी सुधारों के समानांतर है। यह शिक्षा को व्यापार की तरह कॉरपोरेट घरानों को सौंपने जैसा है। यह भूलना नासमझी है कि पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री जावड़ेकर ने यह साफ़ दावा किया था कि सरकार शिक्षा क्षेत्र में मुक्त दौर लाने के लिए प्रयासरत है।
महामारी ने भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में विनाशकारी अभाव को उजागर करके रख दिया है जो सरकार की लंबी उपेक्षा और बढ़ते निजीकरण व व्यावसायीकरण का प्रमाण है।
डूटा ने सरकार से शिक्षा को रौंद देने वाले बदलावों से बाज़ आने की मांग करते हुए कहा कि हमारे देश के लिए इसके गंभीर नतीजे होंगे। डूटा ने इस मसले पर शिक्षाविदों के साथ बातचीत की मांग की है। महत्वपूर्ण नीतिगत मामलों में प्रोफार्मा फीडबैक सिस्टम जिसमें राय मांगी जाए लेकिन कोई बहस न हो, मंजूर नहीं है। यह लोकतंत्र और लोगों के भविष्य के लिए खतरनाक है।