यदि आपदा में अवसर ही इस देश के प्रधानसेवक का नारा है तो फिर द्रोणाचार्य, अभिमन्यु का धोखे से मारा जाना, मीर जाफर का नवाब सिराज्जुदौला को धोखा और दंगों में कत्ल कर लूटने वाले वहशियों का कृत भी आने वाले भविष्य के इतिहास में जायज मानेगा…

यदि आपदा में अवसर ही इस देश के प्रधानसेवक का नारा है तो फिर द्रोणाचार्य, अभिमन्यु का धोखे से मारा जाना, मीर जाफर का नवाब सिराज्जुदौला को धोखा और दंगों में कत्ल कर लूटने वाले वहशियों का कृत भी आने वाले भविष्य के इतिहास में जायज मानेगा…
May 26 08:06 2020

सरकार मजदूरों के नाम पर जो कदम उठा रही

है वह गरीब की छाती पर ही पड़ता है……

ग्राउंड जीरो से विवेक कुमार

 

एनएच –2 (जीटी रोड) का इतिहास मौर्यकाल 322 ईसापूर्व से शुरू होकर शेरशाह सूरी, मुगल बादशाह अकबर और अंग्रेजी सरकार से होता हुआ नेहरू काल, और आज मोदी काल में प्रवेश कर चुका है। एशिया के सबसे पुराने मार्गों में शामिल इस मार्ग ने काबुल से लेकर चिट्गोंग (बांग्लादेश) तक सैकड़ों वर्षों की त्रासदियाँ देखी होंगी। पर शायद मोदी काल की इस त्रासदी में लाखों करोड़ों मजदूरों ने पैदल इस सडक़ को नापने का जो कदम उठाया उसने आज 480 सालों के बाद शेरशाह सूरी की कोस मीनारों की व्यवस्था को वास्तव में धता बता दिया। कौन यकीन करना चाहेगा कि भारत का मजदूर बिना रुके हजारों किलोमीटर पैदल चल रहा है।

क्या सच में संविधान का अनुच्छेद-14 है?

“ये जो मैं पैदल जा रहा हूँ न भईया, इसे कभी भूलूंगा नही।” गाड़ी वाला जा सकता है पर पैदल नहीं, ये कैसा कानून है?  बल्लभगढ़ अनाज मंडी के बाहर अपने 10 लोगों के परिवार के साथ खड़े 45 वर्षीय सतेन्द्र राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-2 (Nह-2) पर इंतजार में खड़े थे कि कोई ट्रक वाजिब दाम लेकर कम से कम झाँसी तक छोड़ दे। सतेन्द्र जैसे हजारों मजदूर फरीदाबाद और लाखों करोड़ों पूरे देश में दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। मजदूर मोर्चा की यह ग्राउंड रिपोर्ट मज़दूरों की आप-बीती का, शासन-प्रशासन का उनके प्रति बेरुखी का, एक दस्तावेज है।

सतेन्द्र ने बताया, बीती दीवाली के बाद मैं दिल्ली से वापस मध्यप्रदेश, छत्तरपुर जिले में स्थित अपने गाँव आ गया। दिल्ली में प्रदूषण के कारण पहले ही कंस्ट्रक्शन का काम बंद हो गया था और त्यौहार भी आ गया था तो मैं गाँव में ही रहा। उसके बाद से लेकर मार्च तक दिल्ली में कोई काम नहीं मिल पा रहा था इसलिए अपने साले के पास परिवार समेत जम्मू चला गया। 17 मार्च की सुबह जम्मू पहुंचा और पहुंचते ही मुट्ठी इलाके में एक मकान के काम में लग गया। अभी मात्र पांच दिन ही काम किया था कि मोदी जी ने जनता कर्फ्यू लगा दिया और फिर लॉकडाउन हो गया। सच बता रहा हूँ भईया जी पांच दिन में जो पैसे कमाए थे और घर से जाते वक्त पांच सौ रुपये रखे थे अपनी माँ से लेकर, बस उन्ही पैसों से दिन गुजारे।

मोदी ने कहा बस 21 दिन में सब ठीक हो जाएगा तो हमने मान लिया। उसके बाद फिर अब रोज ही जब लॉकडाउन बढ़ा रहे हैं तो आप ही बताओ भईया क्या करता मैं? दो-दो दिन मेरे बच्चे भूखे रहे हैं, उसके बाद मैंने बारह दिन भाग दौड़ करके एक आदमी से रेल के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया। क्या सरकार को दिख नहीं रहा कि हम कितने परेशान हैं? क्यों हमे अपने ही घर जाने के लिए रजिस्ट्रेशन करवाना पड़ रहा है, हो क्या रहा है इससे?  पहले झाँसी तक ट्रेन से मैं 400 रुपये में आ जाया करता था पर अब वही दिल्ली तक के लिए मुझे 1200 प्रति व्यक्ति के हिसाब से 6000 रुपये लिए गए।  हमारे पास तो बड़े वाला मोबाइल भी नहीं है और न ही हमें रजिस्ट्रेशन करना आता है। इसीलिए रजिस्ट्रेशन करने वाले आदमी ने पांच लोगों की टिकट पर प्रति टिकट 200 के हिसाब से 1000 रुपये वसूले। पांच लोगों की ट्रेन टिकट हमें सात हजार की पड़ी, अपने साले के ठेकेदार से कुछ पैसे उधार लेकर हमने टिकट ली है, कमाया कुछ नहीं कर्जा चढ़ा सो अलग।

सतेन्द्र अपने परिवार समेत मुट्ठी से जम्मू स्टेशन पैदल पहुंचे, मात्र स्क्रीनिंग के अलावा दूसरा कोई टेस्ट नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि जब इतना ही करना है तो कागज बनवाओ, रजिस्ट्रेशन करवाओ जैसे ड्रामे की क्या जरूरत है, ये तो आप तब भी कर सकते हो जब हम सीधे स्टेशन आ जाएँ।

रेल और पैदल में बस पहिये का अंतर

रेल में बैठने के बाद से सतेन्द्र और उनके पूरे परिवार ने कुछ नहीं खाया, उन्होंने बताया कि क्योंकि पैसे थे नहीं और जो थे वो सब टिकट में लगा दिए। सोचा था सरकार गाड़ी में खाने को कुछ देगी पर नहीं दिया, खाने तक के पैसे नहीं हैं, रेल में चार पूड़ी सरकार ने दे दी होती तो पैदल और रेल का फर्क तो मिट जाता।

दिल्ली स्टेशन पर सुबह पांच बजे उतरे थे और किसी ने बताया कि बॉर्डर पार कर फरीदाबाद चला जा, किसी तरह तो वहां से झाँसी का कोई न कोई साधन जरूर मिल जाएगा। बारह घंटे पुलिस से बचते बचाते अब जाकर बल्लभगढ़ अनाज मंडी पहुंचा हूँ और ट्रक वाले झाँसी तक 2-3 हजार रुपये प्रति सवारी मांग रहे हैं, कहाँ से लाऊं अब इतना पैसा?

सरकार का कदम

डीसीएम् ट्रक में जाते आठ लोगों के हजूम में 6 महीने की बच्ची भी शामिल थी। बच्ची की माँ रेनू ने बताया कि कल दिल्ली में खाना खाया था, उसके बाद रानीबाग दिल्ली से पैदल ही निकल पड़े। रास्ते में यहाँ भीड़ देख रुक गए कि तो शायद हमें भी सवारी मिल जाये। ये परिवार झाँसी जाना चाहता है और दिल्ली रानीबाग के जिन पार्कों की सैर वहां के निवासी अपने बच्चों को फूल-पत्ते दिखा-दिखा कर और कुत्ते टहलाने के लिए करते हैं उनकी सफाई का जिम्मा रेनू जैसे परिवारों के कन्धों पर है। इन्ही के भरोसे से प्रधानमन्त्री भी स्वच्छ भारत का राग अलापते थकते नहीं थे। पर इनकी सुध के नाम पर इन्हें भी गन्दगी सा बना डाला गया है और साफ करने के क्रम में मजदूरों को नदियो-नालों में बहती गन्दगी सा छोड़ दिया गया, कि जाओ बहो जाओ। इनकी शक्लों को तस्वीर में न देख पायें तो इस विवरण से देखने का प्रयास करें, आपको अपने बच्चे दिख जाएँगे अपने लोग दिख जाएँगे।

सभी के होंठ सूख कर सफेद पड़ गये थे, बच्चे जीभ के गीलेपन को होंठो पर रगड़ कर जिन्दा रहने की कोशिश कर रहे थे। आँखों के किनारे सडक़  की धूल से पटे पड़े थे। शरीर से भयंकर पसीने की बदबू उठ रही थी, जिसका कारण था 42 डिग्री पारे में 6 घंटे पैदल चलना। साडिय़ों की किनारियाँ दरक गयीं थी, मर्दों की धोतियों की गांठे भी ढीली होकर झूलने लगी थीं, पर मुंह पर मास्क के आदेश ने हाथों को मुंह पर ही टिका दिया था।  जिस ट्रक में बैठे हैं वो सिर्फ होडल तक जा रहा है पर जो भी दूरी कम हो जाये उतना ही सही। झाँसी जाना है और जेब में मात्र 138 रुपये हैं और लोग आठ, जबकि झाँसी शहर की दूरी 400 किलोमीटर।

बहुत कठिन है डगर

जिस तरह इस्लाम के लिए सबसे अधिक बलिदान बकरों ने दिया है उसी तरह विकास के लिए सबसे बड़ी आहुति पेड़ों ने दी है। जिन पाठकों ने कभी दिल्ली से झाँसी का सफर नहीं किया उन्हें भूगोल की भाषा में बता दें कि पूरा रास्ता सवाना भूमि का है। सवाना भूमि अफ्रीका के सवाना घास मैदानों से लिया गया शब्द है। सवाना इलाकों में झाडिय़ाँ बहुत होंगी पर पेड़ नहीं। ऊपर से मानव समाज ने पेड़ काट डाले और सरकार ने तो एक्सप्रेस वे बनाये हैं जो सिर्फ गाडिय़ों के लिए हैं। यानी कि पैदल चलने वालों के लिए कुछ नहीं। आज जो पेड़ होते तो कम से कम होडल के आगे पैदल जाने के लिए रेनू और उसकी बच्ची को कहीं सुस्ताने के लिए या चलने के लिए छांव तो मिलती।

सिख समाज ने पंजाब को भारत और विश्व के इतिहास में अमर कर दिया है। पंजाबी समाज के लोग बल्लभगढ़ पुल पर जहाँ मजदूरों की भीड़ खड़ी थी, वहीँ पास में अपनी गाडिय़ों की डिग्गियों में खाने के डिब्बे लिए खडें़ थे। मात्र दो घंटे में सुरिंदर सिंह के लाये पांच सौ डब्बे खाने में से लगभग 400 बंट गए। इन्ही डब्बों को अपने झोले में भर कर एक बड़ा मजदूरों का समूह ट्रक में जाने के लिए किसी उपाय में लगा था। समूह में मुखिया का रोल अदा कर रहे 40 वर्ष के जयगुरू लुधियाना पंजाब के रोपड़ से अपनी पत्नी और दो बच्चों कीर्ति और राहुल उम्र 15 व् 12 क्रमश: के साथ पैदल चल कर अम्बाला तक आये और फिर वहां से एक गाड़ी वाले ने उन्हें सोनीपत बॉर्डर पर छोड़ दिया था।

जयगुरु ने बताया कि बॉर्डर से फिर पैदल चले और इस बार पैदल चलना जोखिम भरा था। दो जगह पुलिस के डंडे पड़े, कई जगह पुलिस वालों ने मेरे बच्चों तक को माँ-बहन की गालियां दीं। मैं अनपढृ़ हूँ  और इसीलिए अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ा रहा था। कभी उनके सामने किसी को न गाली दी न ही कभी उनको इस तरह के माहौल में पडऩे दिया। पर आज जब सडक़ पर पुलिस वालों ने मुझे और मेरे बच्चों को मारते हुए गालियां दीं तो क्या रहा अब मेरे पास अपने बच्चों से आँख मिलाने को। जिस बेटी को सबके खिलाफ जाकर स्कूल में दाखिल किया था अब वो कहती है कि कभी स्कूल नहीं जाएगी। एक बार छत्तरपुर पहुँच जाऊँ तो फिर अब कभी वापस नहीं लौटूंगा।

पहिये का अविष्कार गरीबों को रौंदने के लिए हुआ

जयगुरु के 13 साल के बेटे ने कहा कि हम क्या इंसान नहीं, क्या हम कोरोना लाये थे, क्या हम बस से जाते तो कोरोना फैल जाता और जो अब ठूस-ठूस के ट्रक में जा रहे हैं तब नहीं कोरोना फैलेगा? और जो फैलेगा तो सबसे पहले उसका नुकसान किसे होगा, हमे या मोदी को। पैसे वाले लोग अपने घरों में बैठ कर टीवी पर हमे पैदल चलता देख कर हमारा मजाक उड़ा रहे हैं। कुछ लोग सडक़ पर गालियां तक दे रहे हैं। क्या हमें कोरोना फैलाने  वाला ही समझा जा रहा है, क्या हमसे बाकी के सभी लोगों को बचाना ही मोदी का काम है? क्या हमें बचाना मोदी का काम नहीं? क्या पहिये का आविष्कार इन्ही के लिए हुआ था?

आपदा में अवसर निकालते मोदी जी के चेले और पुलिस

सभी मजदूरों के घर पहुँचने की उम्मीद बन चुकी अनाज मंडी बल्लभगढ़ के बाहर एक पूरी ब्लैक इकॉनमी चल रही है, मोदी जी के शब्दों में कहें तो “आपदा में अवसर का रास्ता।” क्योंकि यहाँ ट्रक अनाज लेकर आते हैं इसलिए खाली होकर जाते वक्त इन मजदूरों की मजबूरी में मोटी कमाई करने का रास्ता खुला हुआ है। ट्रकों में सवारी भरवाने का काम करने वाले एक दलाल ने बताया कि दूरी के हिसाब से पैसे ले रहे हैं, पर झाँसी तक 2000 रुपये ही ले रहे हैं। हालांकि कुछ मजदूरों का कहना था कि कोई दाम तय नहीं है, जैसी मजबूरी देख रहे हैं वैसे पैसे मांग रहे हैं।

यदि आपदा में अवसर ही इस देश के प्रधानसेवक का नारा है तो फिर द्रोणाचार्य, अभिमन्यु का धोखे से मारा जाना, मीर जाफर का नवाब सिराज्जुदौला को धोखा और दंगों में कत्ल कर लूटने वाले वहशियों का कृत भी आने वाले भविष्य के इतिहास में जायज मानेगा। नाम न बताने की शर्त पर एक युवक ने बताया कि बीती रात से मजदूरों को लूटने का धंधा चल रहा है। पुलिस और लोकल ट्रांसपोर्टर दोनों ही इसमें शामिल हैं। होता यूँ है कि मजदूरों से कम से कम 2000 रुपये ट्रक वाला ले रहा है और हरियाणा-यूपी के बॉर्डर पर पुलिस उस ट्रक को रोक लेती है। इससे मजदूर भी आगे नहीं जा पाता, ऐसा करते-करते अब तक सैकड़ों मजदूर कोसी बॉर्डर पर इकठ्ठा हो गए हैं। अब खेल ये है कि पुलिस को जो ट्रक अपनी कमाई का हिस्सा दे रहा है उसे पुलिस निकल जाने दे रही है। ये सब खबर इस युवक को कैसे मालूम, उसने बताया कि वह खुद ट्रक में मजदूर भरवा रहा है और जिन ट्रकों में आदमी भेजे थे वे ट्रक मात्र तीन घंटे में ही वापस आ गए। जबकि उन्होंने मजदूरों से झाँसी तक का पैसा लिया था।

रात के करीब आठ बजे बल्लभगढ़ से दिल्ली जाने वाली सडक़ पर 20 से 22 वर्ष के चार लडक़े बैग थामे सामने से गुजरने वाली गाडी को हाथ दे रहे थे। बात करने पर बताया कि वे सभी फरीदाबाद के सेक्टर 21 के एक छोटे से ढाबे में काम करते थे। कोई खाना बनाता था, कोई हेल्पर था और एक बर्तन मांजने वाला।

चारों हल्द्वानी उत्तराखंड के रहने वाले हैं और अब लॉकडाउन को बर्दाश्त करने की न तो हिम्मत ही बची है न जेब में पैसा। हमने एक ऑटो वाले से प्रति व्यक्ति बीस रुपया लेकर उन्हें सराय बॉर्डर तक छोडऩे का आग्रह किया तो लडक़ों के पास कुल जमा इतना पैसा भी नहीं बचा था।

कितना देख सकते हैं आप?

पैदल चलते मजदूरों की सैकड़ों-हजारों तस्वीरें सोशल मीडिया से लेकर सारे जमाने में तैर रही हैं और अब, जब लॉकडाउन खुल गया है तो गाड़ी से आने जाने वाले लोग खुद भी देख ही रहे होंगे। हमारी इस रिपोर्ट में ऐसा कुछ भी शायद नया न हो जो आपने देखा न हो न आपको पता हो। पर ये रिपोर्ट मजदूरों का एक दस्तावेज जरूर है जिसे छापना इतिहास में दर्ज करने से कम न होगा।

जयपुर दिल्ली हाइवे पर एक व्यक्ति का विडियो सोशल मीडिया में आया जिसमे वह सडक़ पर गाड़ी की टक्कर से मरे कुत्ते की अंतडिय़ों से मांस अलग कर खा रहा है। किसी ने कहा पागल है तो किसी ने कहा मजदूर, जो भी हो पर ये तय है कि भूखा है। न्यूज चैनलों ने खबर चलायी वो भी इस कैप्शन के साथ कि विडियो आपको विचलित कर सकता है। सोचिये जिस विडियो को देखने मात्र से आप विचलित हो सकते हैं वह व्यक्ति वो जीवन जीने को मजबूर हुआ, किसके कारण? कोरोना केस बिलकुल नहीं, मोदी शासन के बेईमानी और बेवकूफी भरे कदमों  से।

ऐसा ही एक दिल दहलाने वाला विडियो महाराष्ट्र से आया जिसमे एक ट्रक पलट गया है और कुछ महिलाएं मारी गयीं। महिलाओं की लाशों के पास उनके दूध पीते बच्चे अपनी माँ की लाश को पकड़ कर रो रहे हैं। मशहूर पत्रकार अजीत अंजुम इस खबर को बताते वक्त कई बार अपने आंसू नहीं रोक सके। पर क्या किसी नेता के भी असली आंसू निकले?

इंडिया वालों को भारत वालों से बस टीआरपी चाहिए

ऐसे कई चित्र हमने-आपने देखे और लाखों कहानियां न हम सुन सकेंगे न कोई लिखेगा और वे दफन हो जाएंगी। पर जो याद रहेगा वह ये कि इस समय सरकार क्या कर रही थी। सरकार जो कर रही है उसका जवाब चुनाव में ही दिया जा सकेगा पर समाज जो कर रहा है उसे भी जानते चलें।

“आई सपोर्ट हिन्दू राष्ट्र” की फोटो लगाये हुए देवेन्द्र प्रताप ने लिखा कि “कुछ लोग जानबूझकर भी पैदल चल रहे हैं क्योंकि अब मीडिया में इनकी खबर आने से ये हीरो बन रहे हैं।” जाहिर सी बात है देवेन्द्र के पास नेटफ्लिक्स की सुविधा है और महीने भर का राशन भी। पिता का जमा किया हुआ धन भी होगा ही। और यदि देवेन्द्र जैसों को मजदूरों का यूँ पैदल जाना टीआरपी का खजाना लगता है तो पूर्व डीजीपी हरियाणा विकास नारायण राय

के शब्दों में, “पैदल घर वापसी करते मजदूरों से ज्यादा ही ईष्र्या हो रही हो तो उनसे अपना स्थान बदल लें।”

 

 

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Mazdoor Morcha
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