मज़दूर मोर्चा सम्पादक सतीश कुमार पर गाज कैसे गिरी, पढ़ें अंदर की खबर

मज़दूर मोर्चा सम्पादक सतीश कुमार पर गाज कैसे गिरी, पढ़ें अंदर की खबर
November 29 08:33 2019

फरीदाबाद, मज़दूर मोर्चा ब्यूरो
14 अगस्त प्रात: 5-30 बजे एनआइटी के विवादों व आरोपों से घिरे डीसीपी विक्रम कपूर ने पुलिस लाइन स्थित अपने सेक्टर 39 स्थित सरकारी आवास पर अपनी सरकारी पिस्टल से आत्म हत्या कर ली थी। मरने से पहले उनहोंने एक लाइन का नोट अंग्रेजी में लिखा, ”मैं यह अब्दुल की वजह से कर रहा हूं, इन्स्पेक्टर अब्दुल शाहिद मुझे ब्लैकमेल करता है।

परिजनों द्वारा दी गयी सूचना पाते ही चंद मिनटों में वहां बड़े पुलिस अधिकारियों का जमघट लग गया। लेकिन मृतक के बेटे अर्जून कपूर के बयान पर एफआईआर साढे चार घंटे तक सोच-विचार करने के बाद साढे दस बजे दर्ज की गयी। इस सोच विचार में मुयत: मौके पर पहुंचे सीपी संजय कुमार, डीसीपी बल्लबगढ़, राजेश भारद्वाज जो डीसीपी क्राइम भी हैं तथा पुलिस प्रवक्त्ता पंडित सूबे सिंह शर्मा उपनिरीक्षक शामिल थे। इन तीनों द्वारा सलाह के बाद अर्जुन कपूर को एफआईआर में एक नाम सतीश मलिक, घुसेडऩे को कहा गया था। यद्यपि मृतक विक्रम कपूर के सुसाइड नोट में सतीश मलिक नाम नहीं था, फिर भी उक्त तीनों की सलाह व दबाव में सतीश मलिक नाम ए$फआईआर में धंसाया गया, जो शाम होते तक सतीश कुमार सम्पादक ‘मज़दूर मोर्चाÓ बना दिया गया।

सुसाइड नोट में लिखे इन्स्पेक्टर अब्दुल शाहिद को तो ए$फआईआर दर्ज होने से पहले ही उसी दिन सुबह करीब साढे छ: बजे हिरासत में लेने के बाद 15 अगस्त को गिर$फ्तारी दिखाई गयी। साजिश पर पर्दा डालने के लिये सीपी संजय कुमार एंड कंपनी ने सतीश का नाम डालने के पीछे अब्दुल शाहिद का एक मनगढंत बयान लिख लिया जो उसने कभी दिया ही नहीं था। उसके बयान में पुलिस ने लिख लिया कि वह अपने पत्रकार मित्र सतीश से कह कर विक्रम कपूर के खिलाफ ऐसी खबरंे छपवा देगा जिससे वह बदनाम हो जायेगा।

जबकि सतीश की अब्दुल से न तो कोई मेल-मुलाकात थी, न ही किसी प्रकार का कोई सबनध था। हां, जब वह 2009-10 में बतौर उपनिरीक्षक एसएचओ था एनआईटी थाने का तब उसके काले कारनामों को लेकर दो बार खबरें जरूर प्रकाशित की थी, जिस पर यह शाहिद का$फी बिलबिलाया था।
10 जुलाई 2019 के आस-पास शाहिद ‘मज़दूर मोर्चा कार्यालय में भी सपादक सतीश कुमार से मिलने आया था। मिल कर उसने कहा था कि ‘मज़दूर मोर्चा में छपी खबरों से डीसीपी कपूर साहब का$फी परेशान हैं, वे बहुत बढिया अ$फसर हैं, और उसके काफी मेहरबान हैं इत्यादि-इत्यादि। सपादक का बंधा बंधाया जवाब था कि जैसा जो कोई करेगा वैसा तो लिाा ही जायेगा, उनसे कहिये कि वे रिश्वतखोरी मेें इतने निचले स्तर तक न गिरें जिसके प्रकाशित होने पर उन्हें शर्मशार होना पड़े।
अब्दुल ने अपने $फोन से सम्पादक की बात कपूर साहब से करा दी। कपूर साहब ने छूटते ही कहा कि उनसे ऐसी क्या गुस्ताखी हो गयी जो उनके विरुद्ध ऐसी खबरें छाप दी, आप कभी मेरे द$फतर में आये हों और आपका कोई काम न किया हो, आपका कोई काम हो तो बताओ आदि-आदि। जवाब में सपादक ने कहा कि वे न तो कभी उनसे मिले हैं न फोन किया है न कोई काम पड़ा है और न ही पडऩे की कोई सभावना है। आपके दफतर में शराब बेचने वाले, जुए-सट्टे वाले लगातार आते-जाते हैं और बाहर निकल कर गालियां देते हुए बताते है कि आपको कितनी-कितनी मंथली देते हैं। थाने-चौकी वाले डूब लें तो डूब लें परन्तु इतने बड़े अ$फसर के दफतर में इस तरह से लेन-देन करना, पूरे महकमे की नाक तो काटता ही है बल्कि इतने ऊंचे ओहदे पर बैठे अफसरों की भी मिट्टी पलीत करता है, इसको सुधारो। कपूर साहब ने कहा कि आगे से ध्यान रखना तो सम्पादक ने कहा कि वे भी महकमे की इज्जत का ध्यान रखें।

बात को थोड़ा आगे बढ़ाते हुए सम्पादक ने उनसे पूछा कि क्या वे कुरूक्षेत्र से ताल्लुक रखते हैं तो उन्होंने जब हां कहा तो सम्पादक ने पूछ लिया क्या वे पूर्व पुलिस अधिकारी श्री हंसराज कपूर के बेटे हैं…? बात को बीच में ही काटते हुए कपूर साहब ने हां कहते हुए पूछा कि आप उन्हें कैसे जानते हैं? इस पर सम्पादक ने उन्हें बताया कि सन् 1971-72 में वह गवर्मेंट कॉलेज हिसार में बीए में पढता था। कॉलेज में हड़ताल के दौरान (उस वक्त का छात्र) सम्पादक गेट पर नारेबाज़ी कर रहा था तो कपूर के पिता जी जो वहां अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक थे, उनका कान पकड़ लेते थे और कहते थे पुलिस दा पुत्र होके सरकार दे खला$फ नारेबाज़ी करना ऐं, खलोजा, मैं तेरे बापू नूं दसांगा; (सम्पादक के पिता जी भी उस वक्त वहां विजिलेंस इन्स्पेक्टर हुआ करते थे।) इसके बाद वे बोलते थे, ”मैं 18 रुपये दा शिपाई भर्ती होया सी, बेख अज मैं एसपी हो गया आं, तुसी वी कुछ सिखो मेहनत करो, ऐंवे न वक्त
बर्बाद करो, आगे वधो, तरक्की करो….।

यह सब सुन कर कपूर साहब हैरान होते हुए बोले कि 1971-72 में जब आप बीए में थे मैं तो हर्जी राम स्कूल में चौथी-पांचवी में पढता था, $िफर आप तो मेरे से बहुत बड़े हुए, कितनी उम्र हो गयी आपकी? सपादक ने बताया कि वह तो 68 पार करे बैठा है। सुन कर कपूर साहब ने कहा कि आप तो का$फी बड़े हैं और घर के ही आदमी हैं। इस पर सपादक ने कहा कि वह बाहर का कब था? घर का हूं तभी तो महकमे की कटती नाक देख कर तकली$फ होती है। सपादक की उनसे कोई रंजिश नहीं है बस अपने इतने ऊंचे पद व महकमे की इज्जत बनाये रखें तो कोई झगड़ा नहीं।

विक्रम कपूर से उक्त वार्तालाप के अलावा सम्पादक सतीश कुमार की उनसे कभी कोई बात-चीत नहीं हुई। यद्यपि इस वार्तालाप के बाद अब्दुल ने दो बार $फोन करके सम्पादक को कपूर साहब से डिनर आदि पर मिलने का न्योता जरूर दिया जिसे सम्पादक ने शालीनता से टरका दिया। उक्त दो $फोन कॉल के अलावा अब्दुल ने सम्पादक के द$फ्तर में आने से पहले भी दो कॉल की थी। यानी इन्हीं कुल चार $फोन कॉल को आधार बना कर पुलिस ने सम्पादक को अब्दुल का मित्र एवं सहयोगी तथा डीसीपी कपूर को ब्लैकमेल करने का सह अपराधी बना कर अपने विरुद्ध अखबार की रिपोर्टों का बदला लेने का बेहूदा प्रयास किया।


पुलिसिया षड्यंत्र और अग्रिम जमानत

कानून में प्रावधान है कि जब भी पुलिस किसी को मात्र प्रताडि़त करने की नीयत से हिरासत में लेना चाहे तो वह अग्रिम जमानत की मांग न्यायालय से कर सकता है। इसी कानूनी प्रावधान के तहत सम्पादक सतीश कुमार ने अपने वकील ओपी शर्मा के द्वारा सत्र न्यायालय से अग्रिम जमानत की प्रार्थना 17 अगस्त को की जिसे 20 अगस्त को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश राजेश गर्ग ने अस्वीकार कर दिया। दो दिन बाद आदेश की प्रति मिलने के बाद यही प्रार्थना हाई कोर्ट चंडीगढ में वकील गुरिंदरपाल सिंह के द्वारा लगाई गयी। उस पर 4 सितम्बर को लबी सुनवाई उपरान्त माननीय न्यायमूर्ति अमोल रत्न सिंह सिद्धू ने जमानत प्रदान कर दी।

अग्रिम जमानत की कानूनी प्रक्रिया के दौरान पुलिस अपना पूरा जोर लगा देती है कि जमानत मंजूर होने से पहले अपने शिकार को धर दबोचे। वही सब प्रयास सतीश कुमार को दबोचने के लिये भी किये गये। पुलिस के सीमित संसाधनों का भारी दुरुपयोग करते हुए दर्जनों टीमें न केवल हरियाणा भर में भटकती रहीं बल्कि सपादक के वकील गुरिंदरपाल सिंह के घर तक जा पहुंची जहां से मुंह की खा कर लौटीं। इस से पहले 14 अगस्त की शाम को ही दर्जनों पुलिस वाले सम्पादक के सेक्टर 14 स्थित निवास पर आ धमके थे, जबरन घर में घुस कर तलाशी के नाम पर सारा घर खंगाल मारा। इतना ही नहीं जाते वक्त छोटे बेटे को भी साथ ले गये जिसे तीन-चार घंटे सीआईए-30 में बैठाये रखने के बाद वापस छोड़ गये। घुसपैठ और उदाहरण की यही सारी प्रक्रिया एक सप्ताह बाद $िफर से दोहराई गयी; मानो किसी बहुत बड़े अपराधी की तलाश में जुटे हों।

सपादक के छोटे भाई के नहर पार स्थित आवास पर भी एक टीम पहुंच गयी। उनसे बहनों के $फोन नबर लेकर, गुडग़ांव तथा हिसार में रहने वाले बहनोइयों तक को तलब करने का प्रयास किया; लेकिन उन्होंने सा$फ कहा कि पहले लिखित नोटिस भेजो, तब देखेंगे। यह सारी कवायद सपादक को सामाजिक तौर पर बदनाम करने मात्र की गयी थी।


‘मज़दूर मोर्चा’ के पाठक मनीष का अपहरण व प्रताडऩा

एनएच-5 में रहने वाले 40 वर्षीय मनीष बत्रा को एसआई रविन्द्र के नेतृत्व में आई एक टीम उस समय अपहृत कर ले गयी जब वे एनएच-3 में अपने एक मित्र के घर पर बैठे थे। 17 अगस्त सायं को 6 बजे अपहृत किये गये मनीष को इस टीम ने अपने सेक्टर 30 स्थित ठिकाने पर रात साढे 11 बजे तक रखा।

इस दौरान पुलिस वाले लगातार उन्हें मां-बहन की बहुत ही गंदी गालियों के साथ प्रताडि़त करते रहे। पुलिस वाले उनसे बार-बार एक ही बाद पूछ रहे थे कि सतीश कहां है, उसका फोन नम्बर क्या है? इन अक्ल के अंधो से कोई यह पूछे कि जब खुद सतीश को ही नहीं पता था कि वह कल कहां होगा और परसों कहां होगा तो मनीष बेचारा कैसे बता सकता था कि सतीश कहा है? रही बात $फोन की तो ऐसे वक्त में कोई भी समझदार व्यक्ति अपने मोबाइल $फोन का इस्तेमाल नहीं करता। और कोई इधर-उधर का नम्बर होता भी है तो उसे सार्वजनिक नहीं किया जाता। परन्तु इन जाहिलों को इस सबसे क्या, उन्हें तो बस किसी शरी$फ आदमी को प्रताडि़त करने का बहाना चाहिये।

17 तारीख की रात को छोडऩे के दो दिन बाद इसी टीम ने $िफर उनके घर के चक्कर लगाने शुरू कर दिये, बार-बार $फोन करने लगे; इस से परेशान मधुमेह व रक्तचाप के मरीज़ मनीष को घर छोड़कर एक सप्ताह के लिये वैष्णो देवी (कटरा) के मंदिर में शरण लेनी पड़ी। वहां से लौटने के पश्चात काफी दिन तक उन्हें दायें-बायें होकर रहना पड़ा। बेलगाम पुलिस की यह आपराधिक गुंडागर्दी नहीं तो और क्या है?


जमानत के बाद पुलिस को ‘मज़दूर मोर्चा’ सपादक की कोई जरूरत नहीं रही?

अग्रिम जमानत हो जाने के बाद सपादक ने कई बार उन्हीं पुलिस वालों को $फोन किये जो उनकी तलाश में धरती-पाताल एक किये हुए थे, लेकिन किसी ने फोन नहीं उठया, किसी ने उठाया भी तो ढंग से जवाब नहीं दिया कि वह शामिल त$फ्तीश होने कब आये; दो चक्कर सीआईए-30 के भी लगाये। फिर एक दिन $फोन आया कि 16 सितम्बर को 11 बजे सीआईए-30 पहुंचें। उस दिन करीब तीन घंटे पूछताछ हुई। कुल 40 सवाल पूछे गये जिनके सही जवाब सम्पादक ने दे दिये। हर सवाल जवाब लिखित में था। इस कार्यवाही के शुरू में दो इन्स्पेक्टर व एक सब-इन्स्पेक्टर व 15-20 मिनट को एसीपी क्राइम रहे। करीब एक-डेढ घंटे बाद केवल इन्स्पेक्टर व एक एएसआई ही रह गये।

तीन घंटे की पूछ-ताछ के बाद सपादक को यह कह कर जाने दिया कि जरूरत पडऩे पर फिर बुला सकते हैं। एक सप्ताह बाद यानी 23 सितबर को फिर से साढे 10 बजे बुला कर बैठा लिया। उस दिन पूरी एसआईटी, जिसमें आईजी अमिताभ सिंह ढिल्लोंं, एस पी पलवल बिजरिया, डीएसपी पानीपत राजेश फोगाट, एसीपी क्राइम अनिल यादव, इन्स्पेक्टर नरेंदर चौहान व आनंद शामिल थे, ने सम्पादक से पूछ-ताछ की। विशेष टीम की ओर से सारे सवाल टीम के मुखिया ढिल्लों ने ही पूछे। इन सवालों में अधिकतर वही सवाल दोहराये गये थे जिनके जवाब एक सप्ताह पहले वाली टीम को दिये जा चुके थे।
ढिल्लोंं ने सबसे पहले यही पूछा कि आप को मालूम है कि आप पर क्या आरोप है? सम्पादक ने कहा कि 306, 34 आईपीसी लगी है तो आत्महत्या के लिये मजबूर करने का ही आरोप है। इस पर उन्होंने कहा कि खबर छापने से कोई आत्म-हत्या थोड़े ही करता है, सम्पादक ने कहा कि यही बात तो उसकी समझ में भी नहीं आ रही, इस पर ढिल्लों ने समझाया कि उन पर डीसीपी को ब्लैकमेल करने का आरोप है, यानी डीसीपी से कोई मांग रखी गयी होगी जिसके पूरा न करने पर खबर छापने की धमकी दी गयी होगी। जवाब में सपादक ने कहा कि ठीक है, लेकिन इसके लिये उसका डीसीपी से मिलना या $फोन पर बात करना तो जरूरी है, जो कभी हुआ ही नहीं, जो $फोन वार्ता हुई भी है वह 10 जुलाई के आसपास की है और वह भी अब्दुल के फोन से, जिसका विवरण दोबारा से ढिल्लों को बताया गया। सम्पादक ने यह भी जोड़ दिया कि वह यह मानता है कि उसका उक्त विवरण अब्दुल अथवा कपूर के फोन में रिकार्ड भी हो सकता है, इस लिये वह झूठ नहीं बोल सकता।

दूसरे, ढिल्लों साहब को यह भी वहम था कि ‘मज़दूर मोर्चा’ फ्री वितरित होता है और सम्पादक शायद ब्लैकमेलिंग से गुजर-बसर करता है। इसके जवाब में उन्हें बताया गया कि किस तरह से अखबार की एक-एक प्रति ढाई रुपये में बेची जाती है। इसके अलावा सपादक के पास अपने खुद के पर्याप्त संसाधन होने के बावजूद उनके पाठकों का भरपूर सहयोग उन्हें मिलता है, जब भी वे अपने अखबार में अपील छापते हैं, पाठक उन्हें पर्याप्त आर्थिक सहयोग प्रदान करते हैं।

शुरूआती प्रश्न के साथ ही ढिल्लों ने यह आरोप भी लगाया था कि इतने दिन तक त$तीश में शामिल न होने से उन पर शक और भी बढ गया था। जवाब में उन्हें बताया गया कि यदि उस समय यानी 14 अगस्त को ढिल्लों ही यहां बतौर सीपी तैनात होते तो वह न्यायपालिका की ओर जाने की अपेक्षा सीधे उनके पास आया होता; यानी कि उस वक्त जो सीपी यहां तैनात था वह इस लायक नहीं था कि सम्पादक उसके हत्थे चढता।

अन्त में ढिल्लोंं साहब ने शिकायतकर्ता अर्जुन कपूर की हठधर्मिता का हवाला देते हुए कहा कि चार्ज तो लगेगा और ट्रायल भी भुगतना पड़ेगा…। सपादक ने कहा कि कोई बात नहीं पहले भी कई बार लगे हैं एक बार और सही। इस पर आईजी साहब ने कहा कि यदि आप सहमत हों तो आपका पॉलीग्रा$फ टैस्ट करा दें? पूछने पर उन्होंने बताया कि इस टैस्ट में न तो कोई टीका लगाया जाता है न कोई दवा दी जाती है, केवल हार्ट बीट व ब्लड प्रेशर के उतार-चढाव से विशेषज्ञ डॉक्टर अंदाज़ा लगाते हैं कि कोई झूठ बोल रहा है या सच। इस संदर्भ में उन्होंने सेक्टर 16 के अंकित हत्या कांड का उदाहरण देते हुए बताया कि उसी टैस्ट से घर की बहू को आरोप मुक्त किया गया था। इस पर सम्पादक ने तपाक से कहा कि देर मत करो अभी तुरंत करा लो क्योंकि उसके पास सच बोलने के अलावा और कुछ है भी नहीं। ढिल्लों ने बताया कि टैस्ट करनाल या दिल्ली में होता है वह भी आपकी सहमति व कोर्ट के आदेश उपरांत। लिहाजा अगले ही दिन यानी 24 तारीख को सम्पादक ने कोर्ट में अपनी सहमति का बयान दे दिया। अब टैस्टं की तारीख मिलने का इन्तज़ार है।

यहां देखने और समझने वाली बात यह है कि कपूर व अब्दुल के $फोन पुलिस के कब्ज़े में हैं। उनकी जांच भी हो चुकी है। किसी भी $फोन में सम्पादक की ओर से कोई कॉल नहीं पाई गयी है। अब्दुल के $फोन से सम्पादक को की गयी चार कॉल का विवरण सम्पादक ने दे ही दिया है। इसके अलावा सम्पादक की कोई मेल-मुलाकात न तो कपूर से थी और न ही अब्दुल से। कपूर से सम्बन्धित खबर भी आखिरी बार 23 जून वाले अंक में छपी थी जिसमें तत्कालीन सीपी का भी उल्लेख किया गया था और दोनों की ही $फोटो भी लगाई गयी थी। इससे पहले भी 2-3 बार कपूर के निकमेपन व भ्रष्टाचार को लेकर खबरें प्रकाशित की जा चुकी थी। कपूर साहब ने तो एक बार भी उनका विरोध नहीं किया, कोई खंडन नहीं किया। यहां बड़ा प्रश्न यह उठता है कि क्या भ्रष्ट आचरण को प्रकाशित किये जाने भर से इनकी ब्लैक मेलिंग हो जाती है? यानी ये पुलिस वाले चाहते हैं कि ये लूट-मार करते रहें और कोई इनके विरुद्ध मीडिया में आवाज़ भी न उठे?

सब से मज़ेदार बात तो यह है कि पुलिस कार्यवाही में कहीं यह नहीं लिखा गया है कि सम्पादक ने कपूर साहब को ब्लैकमेल करने की धमकी दी है। इस कार्यवाही में अब्दुल शाहिद उन्हें ब्लैकमेलिंग की धमकी देता बताया गया है, तो इसके लिये सम्पादक को कैसे दोषी ठहराया जा सकता है? इससे भी बड़े मज़े की बात तो यह है कि पेशी पर अदालत आये अब्दुल ने भी बताया कि उसने ऐसी कोई बात कही ही नहीं, यह सब खुद पुलिस का बुना हुआ जाल है।

सीपी का तबादला और नई एसआईटी का गठन

डीसीपी आत्महत्याकांड के करीब एक सप्ताह बाद कुछ समझदार अ$फसरों की सलाह के बाद हरियाणा डीजीपी मनोज यादव ने सीपी संजय कुमार को यहां से चलता किया ओर उसके द्वारा एसीपी क्राइम अनिल यादव के नेतृत्व में बनाई गई एसआईटी के बदले दूसरी एसआईटी अमिताभ सिंह ढिल्लों के नेतृत्व में गठित कर दी जिसमें एसपी पलवल, डीएसपी पानीपत राजेश $फोगाट, गुडग़ावां से इन्स्पेक्टर नरेन्द्र चौहान व इन्स्पेक्टर आनंद को शामिल किया गया। समझा जाता है कि डीजीपी ने यह कदम संजय कुमार की बदनीयती व नालायकी को ध्यान में रखते हुए उठाया था।

पुलिस विभाग से छन-छन कर आयी खबरों से पता चला कि संजय कुमार की योजना सम्पादक को पूरा रगड़ा लगाकर अब्दुल का एक मोबाइल $फोन उनके सिर थोपना था। यह वही $फोन है जिसकी बरामदगी 3-4 दिन बाद अब्दुल की कार के मैट (पायदान) के नीचे से दिखाई गयी है जबकि अब्दुल व उसकी कार को 14 अगस्त को ही कब्ज़े में ले लिया गया था। इसी $फोन की बरामदगी के लिये पुलिस ने अब्दुल के मनगढंत बयान लिख कर सपादक सतीश को कभी पूना से तो कभी देहरादून से पकड़ कर लाने की बातें अखबारों में छपवाई। पुलिस को उमीद थी कि इस दौरान वह सतीश को पकड़ लेगी, परन्तु जब वो हाथ नहीं आये तो उस $फोन की बरामदगी बिना पूना व देहरादून के ही दिखा दी।


सपादक पर आठवां मुकदमा

सतीश कुमार की अग्रिम जमानत का विरोध करते हुए पुलिस अदालत में पूरे जोर-शोर से बताती थी कि सपादक तो पुराना अपराधी है उस पर पहले से ही सात आपराधिक मामले दर्ज हैं; परन्तु यह नहीं बताते थे कि उन मामलों में हुआ क्या। जवाब में सतीश कुमार के वकील ने अदालत को बताया कि सभी केस झूठे थे इसलिये दो केस तो स्वयं इसी पुलिस को रद्द करने पड़े, दो केसों को अदालत ने झूठा व चलाने लायक न समझ कर डिस्चार्ज कर दिया, दो केसों में बरी कर दिया और एक केस की प्रथम अपील अभी लबित है।
जाहिर है इसी तरह का यह झूठा केस भी सपादक पर थोपा गया है। दरअसल इस देश में झूठा केस बनाने वाले पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही तो होती नहीं, इसलिये वे बेधड़क होकर इस तरह के केस बनाते रहते हैं। वे जानते हैं कि यदि वह छूट भी जायेगा तो भी कुछ साल तो भुगतेगा ही, उनके बाप का क्या जाता है।


कश्मीरी महिला का रहस्य

इस सारे मामले में इंस्पेक्टर अब्दुल की जिस महिला मित्र का चर्चा का$फी रहा है वह कश्मीर से उजड़ कर आये एक हिन्दू (पंडित) परिवार की महिला है। हालात की मजबूरी के चलते वह पाली वाले कुयात क्रैशर मालिक धर्मबीर भड़ाना के शिकंजे में फंस गयी थी जिसे वह अपने हित साधने के लिये अ$फसरों आदि को पेश करता था। जब वह अब्दुल के सामने प्रस्तुत की गयी तो अब्दुल ने उसे पक्के तौर पर हथिया कर अपने हित साधन के लिये उच्चाधिकारियों की सेवा में भेजना शुरू कर दिया। डीसीपी कपूर ने भी उसे कई बार इस्तेमाल किया।
भरोसेमंद सूत्रों की मानें तो उस महिला ने पूछ-ताछ में पुलिस को उन उच्चतम अधिकारियों के नाम बताये जिनकी सेवा में उसे प्रस्तुत किया गया था। इतने बड़े-बड़े नाम सुन कर एसआईटी के अधिकारी भी चकरा गये। इसकी जानकारी शीर्ष पुलिस अधिकारियों को दी गयी तो आदेश आया कि इस पहलूको उछलने से रोको; लिहाजा महिला का वह बयान कलमबंद नहीं किया गया। कुछ भी हो, इस से इतना तो स्पष्ट हो ही गया कि अब्दुल जैसे लोग किस प्रकार उन्नति की सीढियां बे रोक-टोक चढते जाते हैं तथा सदैव मलाईदार पोस्टों पर ही तैनात रह कर माल-मलाई उड़ाते रहते हैं। ऐसे में इस महकमे का बेड़ा गर्क नहीं होगा तो क्या होगा?

डीसीपी कपूर की मौत का असल जिम्मेदार कौन?

बेशक डीसीपी कपूर अपने सुसाइड नोट में इन्स्पेक्टर अब्दुल को और उसका बेटा अर्जुन ‘सतीश मलिकÓ को दोषी बता कर फारिग हो गये और पुलिस की तफ्तीश भी इन दोनों के आस-पास ही चक्कर घिन्नी की तरह घूमती रही। पुलिसिया कार्यवाही की समीक्षा करने से लगता है कि उसका असल मकसद सच्चाई खोजने के बजाय उक्त दोनों को ही सज़ा कराने तक सीमित है।

सम्पादक सतीश कुमार से पूछताछ के दौरान एसआईटी ची$फ आईजी ढिल्लों ने पूछा कि आपको क्या लगता है कपूर की सुसाइड का कारण? सम्पादक ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा कि 35-36 साल की नौकरी वाला पुलिस अ$फसर जो आईपीएस भी हो चुका हो कभी भी केवल इस लिये सुसाइड नहीं करेगा कि उसकी रिश्वत लेते हुए की वीडियो बना ली गयी हो या ऐसी ही कोई और द$फ्तरी कार्यवाही को टेप कर लिया गया हो; वह केवल तभी सुसाइड कर सकता है जब उसे पारिवारिक एवं सामाजिक प्रतिष्ठा खंडित होने का भय सताये। और यह भय केवल तभी संभव हो सकता है जब उसे किसी ऐसे आपत्तिजनक वीडियो के वायरल होने का खतरा हो। यह चर्चा आम है कि अब्दुल ने कपूर को कोई कश्मीरी महिला पेश की थी, उसी के साथ कोई वीडियो हो सकती है। इस पर ढिल्लों ने कहा कि उस महिला से भी दो बार पूछताछ कर ली गयी है, ऐसी कोई वीडियो नहीं है। सम्पादक ने कहा कि वीडियो का बनना या बरामद होना जरूरी नहीं उसका केवल भय दिखाना ही एक इज्जतदार के लिये का$फी हो सकता है।
चालान कोर्ट में प्रस्तुत होने के बाद पता चलता है कि पुलिस ने माना है कि कपूर उस महिला को लेकर सूरजकुंड स्थित एक निजी पंचतारा होटल विमांंता गये थे बेशक पुलिस ने इस बात का खुलासा नहीं किया कि कपूर उस महिला को लेकर और कहां-कहां व कितनी बार गये थे। लेकिन जानकार बताते हंै कि कपूर ने महिला को अब्दुल के शिकंजे से निकाल कर अपने कब्ज़े में कर लिया था। अब्दुल इसी बात से ज्य़ादा परेशान व गुस्से में था। एक तो उसके भांजे को मुजेसर थाने में दर्ज केस से बचाया नहीं, दूसरे उसकी मुर्गी के अंडे खाये सो खाये, मुर्गी भी हड़प ली। गुस्से में भन्नाये अब्दुल ने यही सब बातें 13 अगस्त को डीसीपी के घर पर जाकर उनकी पत्नी के सामने भी खोल दी। जाहिर है कोई भी पत्नी यह सब बर्दास्त नहीं कर सकती। परिणामस्वरूप रात भर घर में क्लेश चला है जिसकी जानकारी घरेलू नौकरों को भी है। वैसे इस दम्पत्ति के बीच इस तरह की खटपट कोई नई नहीं है, यह कई वर्षों से चली आ रही है। इसकी पुष्टि बड़ी सरलता से की जा सकती है, वैसे ‘मज़दूर मोर्चाÓ ने अपने स्तर पर यह काम कर लिया है।
इसके अलावा कपूर को अपने निठल्ले बेटे अर्जुन की भी टेंशन रहती थी। अपने रसूख से वे नगर निगम व ‘हूडाÓ आदि में उसकी ठेकेदारी चलवाने का प्रयास तो करते थे परन्तु वह किसी काम में रूचि लेने की बजाय जि़म में डंड पेलने व खाने-पीने के अलावा किसी काम में रूचि नहीं राता था। हां, पिता की इस मृत्यु के बाद जरूर वह डीएसपी भर्ती होने के वाब देखने लगा है। देखते है बिल्ली के भागों छींका टूटता है या नहीं।

इन सब से बढ कर ताज्जुक की बात तो यह है कि एक आईपीएस अ$फसर अपने मातहत एक इन्स्पेक्टर से डर कर ब्लैकमेल होते-होते आत्महत्या तक पहुंच गया। ब्लैकमेल करने वाला तो दोषी है ही लेकिन क्या ब्लैकमेल होने वाले इतने बड़े अधिकारी को निर्दोष माना जा सकता है? क्या कपूर उन काले कारनामों के लिये दोषी नहीं हैं जिनको उजागर कर देने का भय दिखाकर इन्स्पेक्टर अब्दुल उनको ब्लैकमेल करता रहा? क्या इसके लिये वे उच्चाधिकारी भी उत्तदायी नहीं हैं जिनकी निगरानी से बचकर यह सब गोरखधंधा चलता रहा? क्या वे तमाम उच्चाधिकारी भी दोषी नहीं हैं जो अब्दुल की ‘सेवाओंÓ के बदले उसे संरक्षण एवं बढावा देते-देते उसे इस पद तक ले आये?


सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं

24-30 मार्च के अंक में ‘मोर्चाÓ ने कपूर के चित्र सहित ‘पुलिस लूट-मार में मस्त जनता गुंडागर्दी से त्रस्तÓ शीषक से समाचार प्रकाशित किया जिसमें एसजीएम नगर क्षेत्र में हुई आगजनी व गुंडागर्दी का उल्लेख था। इसके बाद तीन-चार बार क्षेत्र में होने वाली शराब तस्करी व जुए-सट्टे से पुलिस को मिलने वाली मंथलियों का जिक्र भी किया गया था। अन्तिम बार 23 जून को प्रकाशित समाचार में बताया गया था कि कपूर साहब उक्त धंधेबाज़ों से 3-4 माह की अग्रिम मंथली मांगने लगे थे। इतना सब कुछ प्रकाशित होने के बावजूद खट्टर सरकार एवं उनके किसी अधिकारी ने कोई संज्ञान नहीं लिया। यद्यपि ‘मोर्चाÓ तो केवल उतना ही प्रकाशित कर सका जितना उसको ज्ञान था। इन्स्पेक्टर अब्दुल जैसे न जाने कितने और खिलाडिय़ों के साथ कपूर क्या-क्या खेल कर रहे थे, जांच का विषय है। यदि पुलिस नेतृत्व एवं सरकार चलाने वाले खुद पाक-सा$फ होते तो वे इन सब समाचारों का संज्ञान लेकर, अधिक कुछ नहीं तो, कपूर का यहां से तबादला ही कर देते तो उन्हें जान न गंवानी पड़ती, लेकिन यहां तो ऊपर तक सारे ही माह के नहाये हुए हैं।

‘मज़दूर मोर्चाÓ को यह भी पता चला है कि पद्मश्री वरिष्ठ समाज सेवी व सुप्रीम कोर्ट के वकील ब्रह्मदत्त ने उक्त सभी समाचारों को गंभीरता से लेते हुए डीजीपी हरियाणा मनोज यादव, सीपी संजय कुमार व गृह सचिव आदि को पत्र लिख कर मांग की थी कि यदि समाचार $गलत हैं तो सम्पादक के विरुद्ध कार्यवाही की जाय अन्यथा दोषी अधिकारियों के विरुद्ध उचित कार्यवाही की जाय। किसी भी अधिकारी की ओर से जब कोई उत्तर नहीं आया तो उन्होंने बाकायदा आरटीआई लगा कर इन सब से जवाब मांगा है सरकार चलाने वालों की ढिठाई का यह तो एक उदाहरण मात्र है।


ये पुलिस है या गैंग ऑफ वास्सेपुर
ग्राउंड जीरो से विेवेक कुमार

दिल्ली पुलिस और तीस हजारी कोर्ट परिसर में वकीलों के बीच हुई मारपीट की घटना ने पूरे देश की मीडिया को बैठे बिठाये चौबीसों घंटे का एक शो मुहैया करा दिया। तरह-तरह की विडियो फुटेज से लैस भाँति-भाँति प्रकार के टीवी एंकर दिन रात भायं-भायं चिल्लाते रहे। खैर अब ये मामला ठंडा पड़ चुका है और जैसे-जैसे दिन बीतेंगे अखबार के पहले पन्ने से निकल कर ये खबरें फिर शोध पत्रों में आने लगेंगी सिर्फ। इस बीच थाने के जिम्मेवार अपनी और कचहरी के ठेकेदार अपनी पुरानी कारस्तानियों में लगे मिलेंगे। इस पूरे प्रकरण में मजे की बात ये रही कि दोनों पक्षों से समाज के बहुत बड़े वर्ग को किसी भी प्रकार की सहानुभूति नहीं रही। तो बड़ा सवाल ये है कि इनसे समाज इतना विमुख क्यों है?

‘मजदूर मोर्चा के लिए विवेक की ग्राउंड रिपोर्ट के माध्यम से इसे समझा जा सकता है। विवेक जो इग्रू से पत्रकारिता में मास्टर्स कर रहे हैं, मजदूर मोर्चा में इंटर्न काम करते हैं। वैसे इस रिपोर्ट से वकील और पुलिस समुदाय भी सबक लेना चाहें तो कोई कॉपीराइट नहीं है।

24 अगस्त 2019 की सुबह करीब 6 बजे दिल्ली स्थित आया नगर के मेरे घर की घंटी बजी। घंटी के साथ ही एक तेज आवाज से मेरा नाम विवेक पुकारा गया। आँखे मलता हुआ मैंने अपने घर का दरवाजा खोला तो देखा दो आदमी (फरीदाबाद पुलिस के एसआई रविन्द्र कुमार और लाकड़ा, बाद में ज्ञात जानकारी के मुताबिक) मुख्य दरवाजे पर खड़े थे।

मेरे इलाके के ही दिल्ली पुलिस के दो सिपाहियों को स्वास्थ्य लाभ के लिए मेरी मदद की आवश्यकता थी तो प्रथम दृष्टा मुझे यही जान पड़ा कि दिल्ली पुलिस का चौकी हवालदार अपने पीडि़त साथी के साथ आया होगा। क्योंकि मेरा नाम भी पुकारा गया था और शायद नींद में या जैसे भी सिपाही लाकड़ा का हुलिया हुबहू दिल्ली पुलिस वाले मेरे जानकार सिपाही से मिलता जुलता था। इसी गलतफहमी में मैने मुख्य द्वार खोल दिया और लिविंग रूम के सोफे पर उन्हें बैठने के लिए कहा। अचानक उनकी गतिविधियाँ संदेहास्पद मालूम पडऩे से मुझे ज्ञात हुआ कि ये वो लोग नहीं हैं जिन्हें मैने समझने की भूल की। मैं कुछ समझ पाता इतने में ही तीन अन्य लोग मेरे घर के हर कोने में दाखिल हो गए और मेरी मां के यह पूछने पर कि आप कौन हैं उनमें से कपिल नामक (बाद में ज्ञात जानकारी के मुताबिक) सिपाही ने कहा कि हम सीबीआई से हैं।

शोर न करने की हिदायत के साथ मेरे घर में मौजूद मेरा और मेरी मां का मोबाइल फोन, नोटपैड और कुछ अन्य सामान हथियाने के बाद जबरन मुझे अपनी गाड़ी में बैठा कर ये लोग निकल चले। कुछ ही देर में उनकी बातों से माजरा समझ आ गया कि ये लोग सतीश कुमार, जो ‘मजदूर मोर्चाÓ के संपादक हैं, का मुझसे सम्पर्क होने के कारण मुझे ले जा रहे हैं।
मेरे फोन का लॉक खुलवाने के बाद बीच की सीट पर बैठा एक पुलिस कर्मी मेरे व्हाट्सऐप्प में मौजूद सभी चैट पढने लगा। पीछे वाली सीट पर दो पुलिस कर्मी लाकड़ा और कपिल को मुझे मारने की जिम्मेदारी सौंप कर खुद आगे के सीट से एसआई रविन्द्र कुमार ने कहा कि तू समझ तो गया होगा कि हम क्यों उठा लाये तुझे? लाकड़ा ने बताया सतीश के छोटे बेटे का फोन टैब हो रहा था और क्योंकि उसने मुझे फोन किया इस कारण मेरा फोन भी टैब किया गया। मेरे दो दिन की दिनचर्या बताने के सबूत के साथ लाकड़ा ने कहा कि अब तू खुद बोलेगा या हम बुलवा लें? मैने कहा आप पूछो जो पूछना है मैं जवाब दे रहा हूँ।

सतीश कहां है? मैने अपने जानकारी के मुताबिक उन्हें बता दिया कि वो चंडीगढ़ में हैं। इसके बाद मुझपर दबाव डाला गया कि मैं कोई नाम बताऊ जिसके घर सतीश मिलेगा, ये जानकारी मेरे पास न होने की सूरत में रविन्द्र ने कपिल और लाकड़ा को छूट दी कि मुझे मार कर उगलवा लें। कपिल ने थप्पड़-घूंसों से मारना शुरू किया और मारने के साथ-साथ सवाल जवाब भी होते रहे।
अचानक कपिल की नजर सड़क पर आती एक गाड़ी पर पड़ी जिसमे कुछ सामान लदा था और गुडगाँव-फरीदाबाद हाईवे पर गाड़ी को रुकवा कर उससे पूछताछ शुरू हो गई। गाड़ी में बॉडी बिल्डिंग के लिए खाये जाने वाला प्रोटीन रखा था जिसमे से एक बैग कपिल ने जबरन छीन कर अपनी गाड़ी में रख लिया। लाकड़ा ने भलमनसाहत दिखाते हुए बैग वापस उसके मालिक को सौंपा और चलते बने।
मेरे ये पूछने पर कि सतीश ने ऐसा क्या किया है, एसआई रविंदर ने कहा कि वो बहुत शातिर अपराधी है और 13 मुकद्दमे उसपर दर्ज हैं। तुम सब मिलकर सेक्स रैकेट चलाते हो, की तोहमत के साथ कपिल ने मुझे मारना शुरू किया। मुझपर इस बात का जोर डाला जाने लगा कि मैं किसी लड़की का नाम लूं जो सतीश के दफ्तर में काम करती हो। मुझसे ऐसी कोई सूचना न मिलने पर मेरे फोन में मौजूद हर लड़की का चैट पढ़ा गया और पूछा गया कि ये कौन है? मेरे महिला मित्र से हुई मेरे पर्सनल बातों को पढ़ा जाने लगा जिसपर मेरी आपत्ति जाहिर करने पर कपिल जिसको मेरे अंग्रेजी के शब्दों पर चिढ़ हो रही थी मुझे और मारने लगा।

कपिल को नाराजगी थी कि मैं बातचीत में अंगरेजी का शब्द क्यों बोल रहा हूँ? क्या सच में अंगरेजी से कपिल को दिक्कत थी या वो अपने अंगरेजी न बोल पाने की कुंठा स्वरूप मुझे मार रहा था। मेरे ये पूछने पर कि आपका बच्चा क्या अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में नहीं जाता? कपिल ने कहा कि मैं तो सरकारी स्कूल में नौवीं में फेल हो गया था और एक मुक्का मेरे मुंह पर अपने फेल होने के लिए मार दिया, जैसे कपिल मेरी वजह से ही फेल हो गया हो। मैने पलट कर कहा मैं भी नौवीं में फेल हुआ था और हिंदी माध्यम से ही था पर मैने तुम्हारे जैसा बनना नहीं चुना।

इस जवाब ने कपिल के अहम को इतना ठेस पहुँचाया कि उसके मुंह से असल बात निकली और तीन तेज मुक्कों को मेरे चेहरे पर मारते हुए उसने दसियों गालियां देने के बाद कहा कि पुलिस के खिलाफ अखबार में लिखता है। यहाँ से मुझे जान पड़ा कि सतीश से पुलिस की असल समस्या क्या थी।
इस बीच एसआई रविन्द्र कुमार को पता चला कि मैं आया नगर में कुछ वक्त से ही रह रहा हूँ अन्यथा मैं फरीदाबाद में रहता हूँ और मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि को जानने के बाद सभी के हाव् भाव अचानक बदल गए। जूस पिलाने के बाद मुझे सेक्टर 28 पुलिस लाइन ले जाया गया और वह मुझे सिपाहियों के रुकने वाले कमरे में एक दो सिपाहियों की निगरानी में खाना खिलाया गया और एसी भी चलाया गया।
कमरे में आने वाला हर सिपाही मुझे ऐसी नजरों से देखता था जैसे मैं कोई जेबकतरा हूँ। लगभग सभी इस मुद्रा में थे कि ये मिल जाए जिसपर हाथ साफ किया जाए। अब तक स्थिति वैसी नहीं रही जैसी गाड़ी में थी। वहां हिन्दू धर्म पर चलने वाले जहरीली विडिओ देखे जाने लगे और कई अंधविश्वास में डूबे विडियो को देख कर हिन्दू धर्म की वाह- वाह होती रही। लाकड़ा ने बातचीत में कहा कि हम हैं आरएसएस के सिपाही और हमे हथियार इक_े करने होंगे। जिस दिन शेर इशारा करेगा उसी दिन हम इन मुल्लों को निबटा देंगे, पर हां वोट हुडा साहब को देंगे।

इतना सब सुनने के बाद मैं इस सोच में डूब गया कि वर्दी पहने, संविधान की झूठी शपथ खा कर क्या सच में ये लोग देश में एकता और अखंडता को बनाने में सहयोगी होंगे? सरकारी पद पर आसीन होकर जो अपनी व्यक्तिगत और साम्प्रदायिक कुंठा को भुना रहा हो वो क्या इस पद पर रहने योग्य है?
जैसे ही सबको जान पड़ा कि मेरे महिला मित्र मुस्लिम समाज से सम्बन्ध रखती है वैसे ही सबकी बांछें खिल गईं और ये जानने में दिलचस्पी हुई कि मैने उससे अब तक शारीरिक सम्बन्ध बनाये या नहीं? अगर मैं ये कर दूं तो 100 गाय दान करने के बराबर पुण्य होगा। ऐसी ही हजारों सांप्रदायिक बातों से लैस ये कानून के रखवाले संगठित रूप से एक बदमाशों का गिरोह ही प्रतीत हुए मुझे, जो खुद ही कानून को ठेंगा दिखाते रहते हों दिन-रात।

शाम के चार बजे के आस-पास मुझे कहा गया कि अपने किसी जानकार को बुला लो जो घर ले जाए मुझे। इस वाकिये के बाद मेरी मां ने कभी मुझे घर का दरवाजा नहीं खोलने दिया। कई रात वो सो नहीं सकी, और आज भी जब उसे लगता है कि दिल्ली छोड़ कर मैं फरीदाबाद रहूँगा तो एक डर उसके मन में है और साथ ही पुलिस के प्रति नफरत भी। इसी प्रकार सतीश कुमार के दफ्तर में काम करने वाले अन्य लोगों को भी गैरकानूनी तरीके से परेशान किया गया।

उत्तर प्रदेश में कार्यरत एसएचओ पद पर आसीन मेरे एक दोस्त का कहना है कि पुलिस तभी आपका शोषण करती है जब आप कुछ गलत करते हैं। यानी अगर आप घर बनवा रहे हैं तो नक्शा पास करायें पहले, सड़क पर ठेला लगाएंगे तो चालान तो कटेगा ही। अन्यथा पुलिस की जेब गर्म करें। सवाल में ये पूछने पर कि क्या आप बता सकते हैं आपके एसपी के घर के बाहर कितने ठेले लगे हैं और अगर कोई नक्शा न पास कराये तो किस कानून के तहत पुलिस को पैसे लेने का अधिकार मिल जाता है? और पैसा लेते ही वो काम कानूनी रूप से सही कैसे हो जाता है? वे जोर से हंसने लगे और बोले माफ करो विवेक मुझे।

दिल्ली पुलिस में तैनात कई पुलिस कर्मियों से बात करने पर मालूम चला कि उनकी नजर में बालिग लड़की का बालिग लड़के के साथ बिना माता-पिता की मंजूरी के बिना विवाह अपराध है। किस धारा के तहत अपराध है उसके बारे में कुछ नहीं कह सकते। 42 वर्षीय एसआई अजय का मानना है कि आम जनता को डॉक्टर डरा कर पैसे ले लेता है तब दिक्कत नहीं है, शिक्षक अन्य तरीकों से ले ले तो कोई दिक्कत नहीं है पर अगर पुलिस कानून तोडऩे के बाद कुछ पैसे ले रही है तो दिक्कत क्यों है? जबकि पुलिस तो आपकी ही गलती के बाद पैसे मांगती है न कि डरा-धमका कर।

ऐसी हास्यास्पद दलीलों को सुन कर अजीम प्रेमजी फाउंडेशन से आई रिपोर्ट जो बताती है कि 70 प्रतिशत पुलिस वाले मानसिक रूप से सांप्रदायिक हैं पर यकीन करना कोई मुश्किल काम नहीं रह जाता। सोशल मीडिया पर वायरल होने वाली ढेरों विडियो में पुलिस आम आदमी को सड़क पर गुंडों की तरह पीटती नजर आ रही है। कभी चालान के नाम पर कभी अन्य किसी गैरकानूनी तरीके से।
कनिष्ठ अफसर वरिष्ठ अधिकारीयों पर भ्रष्ट होने का ठीकरा फोन कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं और वरिष्ठ से कोई सवाल करे कैसे जो उसकी कानून एवं संविधान की समझ को परखा जा सके।
बावर्दी पुलिस वाला बेशक एक अजूबा दिखता हो पर असल सच्चाई ये है कि बतौर समाज हम खुद ऐसी ही पुलिस चाहते हैं। इसी समाज से जब कोई पुलिस भर्ती में जाता है तो सर्वसम्मति से हम माने बैठे होते हैं कि तनख्वाह को तो हाथ नहीं लगाना पड़ेगा। ट्रेंनिंग में कुछ कानून सिखा कर वर्दी का नाप दे दिया जाता है और नयी वर्दी पहन वही पुरानी अंग्रेजों की पुलिस नए नए तरीकों से समाज का शोषण करने उतर आती है मैदान में।

24 अगस्त को यदि पुलिस को मेरी जरूरत थी तो कानूनन पुलिस मुझे नोटिस देती और ये बताती कि बतौर क्या पुलिस मुझे ले जाना चाहती है? क्यों नहीं हरियाणा पुलिस ने लोकल पुलिस को मुझे मेरे घर से ले जाने से पहले आगाह किया? क्यों नहीं मेरे घर पर सही सूचना दी गई कि वो कौन लोग हैं जो सीबीआई के नाम का झूठ बोलकर मेरा अपहरण कर रहे हैं। किसकी इजाजत से मेरा फोन टैब किया गया, मेरी निजी बातचीत पढी गई? क्या ये मेरे निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं जिसकी व्याख्या चंद माह पहले ही उच्चतम न्यायालय ने की?

इन सब सवालों के जवाब में अगर हरियाणा पुलिस के उन डीसीपी साहब का इम्तिहान दोबारा से लिया जाए जिनके आदेशानुसार (जैसा एसआई रविंदर ने कहा) ये सब हो रहा था तो शायद वो आर्टिकल 21ए पर 1500 शब्द का अच्छा निबंध लिखेंगे। पर अधिकारी बनने के बाद अपनी मजबूरियों के आगे उन्होंने भी संविधान को ताक पर रखना ही उचित समझा है।

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Mazdoor Morcha
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