जब आप सबसे अंतिम और आसान विकल्प को सबसे पहले चुनते हैं तो आप अपनी बुद्धि व नेतृत्व क्षमता का परिचय पहले स्ट्रोक में ही दे देते हैं। जरूरी नहीं कि जिस बात पर आपको हंसी आती है वह सच में चुटकुला ही है

जब आप सबसे अंतिम और आसान विकल्प को सबसे पहले चुनते हैं तो आप अपनी बुद्धि व नेतृत्व क्षमता का परिचय पहले स्ट्रोक में ही दे देते हैं। जरूरी नहीं कि जिस बात पर आपको हंसी आती है वह सच में चुटकुला ही है
May 03 14:05 2020

लॉकडाउन बढ़ा : देश का मिजाज बिगड़ा

दिल्ली के राजा को दिल की बीमारी और प्रजा में छाई भूख की लाचारी

ग्राउंड जीरो से विवेक कुमार की रिपोर्ट

बिस्कुट के तीन पैकेट, आधा पैकेट ब्रेड जिसमे पांच स्लाइस थे, दो कटोरी चावल, एक कटोरी मसूर दाल और पिलपिले केले जिसे फल कहा जा सकने पर शोध आमंत्रित किये जा सकते हैं। ये उस सामान की लिस्ट है जिसे तीस वर्ष के सोनू सिंह ने दिल्ली के पॉश इलाके जंगपुरा की कोठियों से अपने आत्मसम्मान को मुंह पर लगे मास्क के पीछे छुपा कर इकठ्ठा किया है। इतने खाने से सोनू दो दिन से भूखे अपने पांच लोगों के परिवार का पेट भर कर जिंदा रहने की कला दिखाएंगे, जो फिलहाल डिफेन्स कॉलोनी फ्लाईओवर (दिल्ली) के नीचे रहने को मजबूर हैं।

जींस बनाने वाली फैक्ट्री में काम करने वाले सोनू ने खाने के लिए इससे पहले कभी भीख नहीं मांगी थी। पर लॉकडाउन में काम भी गया और कमरा भी। दिल्ली सरकार का आदमी एक दिन खाना दे गया था, तबसे आज तक दोबारा नहीं आया और मोदी सरकार का कोई आदमी फिलहाल तक नहीं आया। इसलिए सीआरपीएफ के जवानों के आगे रोते हुए कहा, कुछ खाने को दे दो। उन्होंने खाने को तो नहीं दिया पर शायद दिल पिघल गया, इसलिए इतना कह दिया कि जा, जंगपुरा की कोठी वालो से मांग ले। मुहं पर कपड़ा बाँध, चार घंटे दरवाजे-दरवाजे जाने पर अधिकतर जगह से खाने को गालियाँ ही मिली, पर अफसोस उससे पेट नहीं भरता सिर्फ दिल भर आता है। और जो कुछ खाने को मिला उसे दूसरी मंजिल या दरवाजे के ऊपर से फेंक कर दिया गया। क्या मिला, विवरण शुरुआत में दिया गया है।

इस वाकिये का संज्ञान लेते हुए नामकरण के काम में पारंगत मोदी सरकार को शायद अब दिल्ली का नाम भी बदल देना चाहिए क्योंकि दिमाग में फैले हुए किस्म-किस्म के प्रदूषण ने शायद दिल्ली वालों के दिल भी छोटे कर दिए हैं। पाठक चाहें तो हैशटैग ट्रेंड ट्वीटर पर चला कर नामों के सुझाव सरकार को भेज सकते हैं।

सिर्फ सीता ही नहीं संगीता को भी जानो

फरीदाबाद बाईपास पर एक कमरे में रहने वाली संगीता के पति का सडक़ हादसे में पैर कट गया। तीन साल के एक बच्चे और दो माह के दूसरे को पेट में लिए संगीता दिन-भर धूप में उन चिडिय़ों की तरह निकल जाती है जो भोर में ही अपने बच्चों का खाना लाने शहर के कचरे में घुस बैठती हैं।

35 साल की संगीता ने बताया कि एक दिन चार आदमी लम्बी-लम्बी लाठियां लेकर उनके कमरे पर आ गए। सबने नारंगी गमछा मुहं पर बांधा हुआ था। पहले तो हम डर गए कि कहीं मारने तो नहीं आये क्योंकि हम कमरे के बाहर बैठे थे। उनमे से एक आदमी ने डंडे से ही कमरे के दरवाजे को खोला और मुझे कहा कि डब्बे खोल कर जरा दिखा। संगीता ने रसोई में पड़े खाली डब्बों को खोल कर दिखा दिया जो सिर्फ इस उम्मीद से भरे थे कि हमें कभी भौतिक वस्तु से भी भरा जाएगा।

खाली डिब्बों को देखने के बाद आदमी ने कहा बाहर लाइन लगा कर सब खड़े हो जाओ, सो संगीता अपने बच्चे और अन्य कुछ पड़ोसियों के साथ खड़ी हुई। तीन लोगो के परिवार के लिए अपनी गाड़ी में से खाना लाने के नाम पर एक खिचड़ी का डिब्बा व दस रुपये वाली दही की डिबिया दी गयी। और न जाने इन गरीबों की कितनी ही फोटो अलग-अलग एंगल से खींची गई। मानो राजा हर्षवर्धन ने इन गरीबों पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया हो।

वैसे इस प्रकार के खटमल छाप दानवीर आजकल पूरे देश में सोशल मीडिया से लेकर गली-मोहल्लों तक में पैदा हो गए हैं जिन्हें अपने ऐंफबी पर दिखाना है कि वे कितने महान हैं। इनका क्या है, ये ऐसे ही हैं और दान देने का कृत भी कुछ ऐसा ही होता है वरना चुनावों के समय खुद मोदी गरीबों के पैर धोने का नाटक कर रहे थे। सवाल है कि हर नागरिक की जिम्मेदारी जब सरकार की है तो क्यों नहीं सोनू और संगीता को भोजन के साथ आत्मसम्मान की गारंटी सरकार सुनिश्चित कर रही है।

कुर्बानी देगा कौन ?

इसी तरह न जाने कितने सोनू और कितनी संगीता कोरोना के नाम पर लॉकडाउन की मार झेल रहे हैं। इसका थोड़ा सा जायजा लेते चला जाए । क्रिसिल रिसर्च की रिपोर्ट पर नजर डालें तो इस वर्ष भारत अपने कुल सकल घरेलू उत्पाद का 4 प्रतिशत गँवाएगा। सरकार की राजस्व उगाही में भी 15 प्रतिशत की गिरावट दर्ज होगी यानी कि 9 लाख करोड़ रुपये और साल 2020 जाते-जाते ये बढक़र 25-30 प्रतिशत होने की भी प्रबल संभावना है।

अब यहीं पर यह जान लेना ज्ञानवर्धक होगा कि किस क्षेत्र के कामगारों को बलिदान देने के लिए पहली पंक्ति में खड़ा होना पढ़ सकता है। भारत में कृषि क्षेत्र में सबसे अधिक 20.53 करोड़ लोग कार्यरत हैं, इस आंकड़े को पढ्ते समय पाठक प्रछन्न बेरोजगारी को नजरअंदाज जो कि भारतीय कृषि में बहुत अधिक है। हलाकि कृषि पर लॉकडाउन का असर उतना तो नहीं होगा जितना इंडस्ट्री, उत्पादन, निर्माण और परिवहन पर पड़ेगा। इन क्षेत्रों में शामिल वर्कफोर्स 11.53 करोड़, 5.64 करोड़, 5.43 करोड़, और 2.29 करोड़ क्रमश: है। क्रिसिल रिपोर्ट के मुताबिक उपरोक्त सेक्टर भयंकर रूप से लॉकडाउन और कोरोना की मार झेलेंगे।

तो अब आप सोच कर देखिये कि जिन क्षेत्रों की बात हम कर रहे हैं उनमे कार्यरत लोग किस आर्थिक और सामजिक वर्ग के हैं? साफ जाहिर है कि जो मजदूर इस वक्त अपने गाँव-परिवार से दूर शहरों को बसाने आये थे वे खुद उजड़ गए हैं और कितने साल तक उजड़ते जाएंगे नहीं कहा जा सकता।

तो क्या मोदी इन्हें बचा रहे हैं?

सवाल है कि सरकार द्वारा लागू लॉकडाउन पर बेशक हम सवाल न करें पर लॉकडाउन के वाहियात तरीके पर सवाल तो किया जाना चाहिए। आखिर किन दिनों के लिए सरकार को चुना जाता है। सनद रहे, राज्य (सरकार) को नागरिक अपने कई अधिकारों को ताक पर रख कर नागरिक जीवन और भविष्य सुरक्षित रखने के लिए चुनते हैं। तो क्या सरकार कुछ कर रही है? यदि हाँ तो आइये कुछ मापदंडों पर सरकार को कसा जाए।

सबसे पहले ये जान लीजिये कि किसी भी अवस्था में जब आप सबसे अंतिम और आसान विकल्प को सबसे पहले चुनते हैं तो आप अपनी बुद्धि व नेतृत्व क्षमता का परिचय पहले स्ट्रोक में ही दे देते हैं। जरूरी नहीं कि जिस बात पर आपको हंसी आती है वह सच में चुटकुला ही है। राहुल गाँधी द्वारा दिए वक्तव्य कि लॉकडाउन महज एक पॉज बटन है न कि समाधान को सरकार द्वारा पहले दिन से ही गंभीरता से लिया जाना चाहिए था। हालांकि गंभीर मुद्दों को गंभीरता से ले पाना मोदी सरकार के ट्रैक रिकॉर्ड के मुताबिक काफी मुश्किल है। जबकि लॉक डाउन के साथ ही कोरोना टेस्ट को युद्ध स्तर पर करने की आवश्यकता है जो सरकार कर नहीं रही।

पहली मई के इंडियन एक्सप्रेस अखबार में छपी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी एवं ग्लोबल चेंज डाटा लैब के आंकड़ों के अनुसार भारत, जर्मनी के बाद अकेला देश है जिसने कोविद -19 से हुई एक हजार मौतों पर सबसे अधिक टेस्ट किये हैं। इस सूची के टॉप देशों में अमेरिका, कनाडा, स्विट्जऱलैंड आयरलैंड, यूके, फ्रांस और इटली भी शामिल हैं।

ये जान कर अच्छा लगा होगा न कि हम दूसरे नंबर पर हैं। पर गौर करने वाली बात है कि इन सभी देशों की कुल जनसँख्या 65 करोड़ है और अकेले भारत की इसके दोगुनी। इससे भी बड़ी बात है कि इन देशों का जनसँख्या घनत्व हमारे मुकाबले कुछ भी नहीं। इसी प्रकार भारत की प्रति व्यक्ति आय का उपरोक्त देशों से भी कोई मुकाबला ही नहीं। तो लॉक डाउन के साथ टेस्ट की गति को कई गुना बढ़ाकर यदि अर्थव्यवस्था को पटरी पर नहीं लाये तो इस लॉकडाउन का सिवाय नुकसान के दूसरा कोई फायदा भारत को नहीं होगा।

यारों की यार मोदी सरकार

लॉकडाउन में मोदी जी ने कोरोना, चिकित्सा, अर्थव्यवस्था से जुडी कोई जानकारी आजतक साझा नहीं की। फिर भी कई दफा टीवी पर नए-नए डिजाइनर गमछों के साथ अपने दर्शन देते मोदी जी ने एक काम जरूर किया- वो है  एक नया नारा दो गज दूरी बहुत जरूरी। ये नारा एक बड़ा चुटकला है।

जिस 130 करोड़ जनसँख्या को वह संबोधित करते रहते हैं, उनके मुंह से इस नारे को सुनने के बाद यकीन हो जाता है कि देश के बारे में उनका ज्ञान गुजरात और शायद बनारस के गमछे से आगे नहीं है। वरना उन्हें पता होता कि भारत के शहरों और गाँव में दो गज की जमीन में आधा हिन्दुस्तान बसता है। जिस 8/8 साइज के एक कमरे में रहने वाले पांच मजदूर वहां सिर्फ सोने आते थे अब उसी घुटन भरे कमरे में दिन-रात रहना है और वो भी दो गज दूरी बना कर, मजाक नहीं तो क्या है? एक मंजिल पर पचास कमरे और उसपर मात्र एक पाखाना जिसमे पांच मजदूर प्रति कमरे के हिसाब से संडास जाएँगे वे दूरी बनाने की कोशिश चाह कर भी नहीं कर सकेंगे।

सिर्फ घरों में कैद करने के अलावा न तो सरकार राशन दे पा रही है और न ही इन कामगारों को उनके घर भेज रही है, और शायद न ही उसकी ऐसी नीयत ही है। गो कोरोना गो बोल कर सबको संयम बरतने के लिए कहा जा रहा है। जो मजदूर भूखे पेट शौच नहीं कर पा रहे वे संयम कैसे बरतें?

अंधेर नगरी चौपट राजा

देश में कमाल हो रहा है, फिल्मी हीरो प्रधानमन्त्री के इंटरव्यू कर रहे हैं, पत्रकार विपक्ष से कत्ल के जवाब मांग रहे हैं, वित्त मंत्री विपक्ष से भ्रष्टाचार दूर क्यों नहीं कर रहे के सवाल पूछ रही है, विपक्ष बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों से देश कैसे बचाएं पूछ रहा है।

रघुराम राजन ने राहुल गान्धी को दिए अपने इंटरव्यू में कहा कि लगभग 65 हजार करोड़ की राशि गरीबों पर खर्च कर उनका जीवन बचाया जा सकता है। हालांकि रघुराम राजन ने यह नही बताया कि ये पैसे किस मद में खर्चे जाने चाहिए।

पर मोदी ने इस इंटरव्यू को न जाने किस चैनल पर देख लिया जो मेहुल चौकसी, नीरव मोदी, विजय माल्या और लाला रामदेव के द्वारा दबाया गया जनता का इतना ही पैसा बट्टेखाते में डाल दिया।

इस बीच खबर आई की रामलला के जन्मस्थान वाले अयोध्या में एक साधू भूख से मर गया| दरअसल जिसे साधू बताया गया है वह साधू के भेष में एक गरीब ही थे जो सरयू किनारे छोटी मोटी दूकान लगा कर काम चलाते थे|

 

 

 

 

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Mazdoor Morcha
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