काम धेले का नहीं ढिंढोरा लाखों करोड़ों का
फरीदाबाद (म.मो.) कोरोना के इस संकट काल में भाजपाई केन्द्र व हरियाणा सरकार तरह-तरह की घोषणायें व आश्वासन देकर जनता को बरगलाने में जुटे हैं। पहले से ही नाकारा व लुंज-पुंज सरकारी मशीनरी के बल बुते सरकार इस लड़ाई को जीतने का दावा कर रही हैं। प्रवासी मज़दूर जो अपनी मजबूरियों के चलते दड़बानुमा घरों में रहने व अपने मालिकों द्वारा दिये जाने वाले वेतन पर निर्भर रहते हैं, अत्यधिक बदहाली में हैं। इन्हें न तो अपने गांवों की ओर जाने दिये जा रहा है और न ही इनके यहां रहने व खाने की कोई व्यवस्था की जा रही है।
विभिन्न प्रचार माध्यमों के द्वारा सरकार ढिंढोरा पीट रही है कि वह इतने लाख लोगों को भोजन करा रही है। सरकार का यह दावा बिल्कुल फर्जी है वास्तव में गुरूद्वारे व अन्य सामाजिक-धार्मिक संगठन थोड़ा बहुत खाने का आपूर्ति कर पा रहें हैं जो कि पर्याप्त नहीं है। इन संगठनों द्वारा बांटे जाने वाले भोजन का श्रेय लेने के लिये जरूर कुछ सरकारी अफसर व राजनेता अपने फोटो खिंचवा कर प्रचारित कर रहें हैं।
सरकार का सबसे बड़ा अर्ध सरकारी संगठन रेडक्रॉस सोसायटी है। यह संगठन प्रति वर्ष जि़ले की जनता से करोड़ों रुपये ऐंठता है जिसे वह खा-पी कर बराबर कर देता है। इस आपदा के वक्त में उसकी कोई सक्रिय भूमिका नज़र नहीं आ रही। इनकी भूमिका जानने के लिये ये संवाददाता कई बार इनके कार्यालय भी गया जहां न तो कभी सेक्रेट्री के दर्शन हुए और न ही कोई अन्य कर्मचारी कुछ बता पाया।
इस सप्ताह के शुरू में घोषणा की गई थी कि जि़ले भर की 15-20 लाख की आबादी का सर्वे मात्र तीन दिन में पूरा करने के लिये 2300 टीमें बनाई गई हैं। ये टीमें घर-घर जाकर एक-एक निवासी की जांच करेंगी तथा संदिग्द्ध पाये जाने पर डॉक्टर उनका मुआयना करके, आवश्यक होने पर टैस्टिंग के लिये उनका सैंपल लेंगे|
शेख चिल्लीनुमा इस घोषणा को पूरा करने के लिये सरकार के पास न तो पर्याप्त मानव संसाधन हैं और न ही कोई अन्य संसाधन। इसके परिणामस्वरूप इस संवाददाता ने शहर के जिन दर्जनों इलाकों में जाकर पूछ-ताछ की तो पता चला कि उनके यहां कोई सर्वे करने नहीं आया।
कोई आता भी कहां से? 2300 टीमों का मतलब कम से कम 4600 कर्मचारी होने चाहियें जो इस सरकार के पास हैं नहीं। विदित है कि न तो स्कूलों में मास्टर पर्याप्त हैं और न ही अस्पतालों में डॉक्टर व अन्य स्टाफ पर्याप्त हैं। और तो और सरकार के अपने प्रशासनिक दफ्तरों में भी आधे पद रिक्त पड़े हुए हैं। जिन पदों पर तैनाती भी हैं उन पर भी अधिकांश कैजुअल अथवा ठेकेदारी कर्मचारी तैनात हैं। जिन थोड़े बहुत शिक्षकों को प्रशासन पेलना भी चाहता था उन्होंने यह कह कर इन्कार कर दिया कि वे उत्तर-पुस्तिकायें जांचे या घर-घर जाकर मिड-डे-मिल बांटे या कोरोना सर्वे करें? लगभग यही स्थिति आशा वर्करों व आंगनबाड़ी कर्मचारियों की है। सुधि पाठक भुलें नहीं होंगे कि ये वर्कर अपने वेतन व सेवा सर्तों को लेकर पहले से ही संघर्षरत हैं। ऐसे में भला इनसे कोई क्या उम्मीद कर सकता है?