रोते हुए रमेश ने कहा कि भीख मांगनी पड़ेगी वो भी अपने बच्चों को साथ लेकर ऐसा दिन भी आएगा, ये नहीं सोचा था साहब कभी।

रोते हुए रमेश ने कहा कि भीख मांगनी पड़ेगी वो भी अपने बच्चों को साथ लेकर ऐसा दिन भी आएगा, ये नहीं सोचा था साहब कभी।
April 26 09:33 2020

 

मोदी का लॉकडाउन गरीब को न कमाने देगा और न खाने को देगा…..

ग्राउंड जीरो से विवेक कुमार की रिपोर्ट

भिखारी बनते मजदूर

अजरौंदा चौक फरीदाबाद से बाटा चौक की तरफ जाते वक्त पुलिस की पोस्ट लगी है जिसपर आधे दर्जन पुलिस कर्मी तैनात हैं। वहीं एस्कॉर्टस कंपनी के गेट पर एक व्यक्ति अपने दो छोटे बच्चों के साथ सामने से गुजरने वाली हर गाड़ी की तरफ अपने हाथो को आगे करके जोड़ रहा था, ताकि गाड़ी वाला उसके जुड़े हुए हाथ देख कर दयावश खाने का सामान या कुछ पैसे दे जाये।

जानने का प्रयास किया तो ज्ञात हुआ कि रमेश जिनकी उम्र 26 साल है एक दिहाड़ी मजदूर हैं और उत्तर प्रदेश के अमेठी जिला के रहने वाले हैं। कोरोना के नाम पर फर्जी लॉकडाउन ने रमेश का काम ही खा लिया और अब रमेश भूखों मरने की तरफ आ गए हैं। रमेश के पास किसी भी प्रकार की सरकारी मदद नहीं पहुंची है। उन्होंने बताया, क्योंकि उनकी झुग्गी रेलवे लाइन नीलम चौक के पास है इसलिए वहां शायद सरकार का नुमाइंदा पहुँच नहीं पाता होगा, यही सोच कर खुद अब सडक़ पर आया हूँ कि यहाँ से कोई देख लेगा तो मदद हो जाएगी। धूप में पूरे चार घंटे अपने और अपने बच्चों के साथ भिखारी जैसा बन कर सामने से जाते लोगों से मदद मांगने के बाद भी किसी तरह की अब तक कोई सरकारी मदद नहीं मिली है।

जो दिहाड़ी मजदूर दुनिया में किसी भी अन्य वर्ग से अधिक 12-12 घंटे तक हर मौसम में शारीरिक मेहनत करता है उस रमेश के लिए चार घंटे भिखारी के तौर पर सडक़ पर बिताना किसी भी पत्थर को तोडऩे से अधिक मुश्किल रहा होगा। मजदूर मोर्चा टीम ने गाड़ी में पड़ा अंतिम राहत सामग्री का पैकेट ज्यों ही रमेश के हाथ में दिया रमेश की आँखों से स्वाभिमान के आंसू बह निकले। रोते हुए रमेश ने कहा कि भीख मांगनी पड़ेगी वो भी अपने बच्चों को साथ लेकर ऐसा दिन भी आएगा, ये नहीं सोचा था साहब कभी। इतनी देर से यहाँ खड़ा हूँ, पुलिस की शक्ल में इन गिद्धों को मुझे पीटना होगा तो इन्हें मैं दिख जाता, पर अपने भूखे बच्चों के साथ खड़ा हूँ इसपर कोई मदद नहीं।

पाठकों को बता दें, रमेश जिस अमेठी जिले के रहने वाले हैं, यह वही जिला है जहाँ से राहुल गाँधी सांसदी जीतते रहे और अब भाजपा की स्मृति इरानी लोकसभा सांसद हैं। कुछ रोज पहले ही स्मृति इरानी ने सिलाई मशीन पर मास्क सिलने का नमूना पेश करते हुए अपने ड्रामेबाजी के उच्चकोटि का प्रदर्शन जनता को दिखाया था। जबकि उनके इलाके के रमेश जैसे मजदूरों को चेहरे पर मास्क से अधिक पेट में खाने की जरूरत है।

मीडिया का एजेंडा

कोरोना से मौतें कितनी हुईं और कितने लोग इस बीमारी से किन-किन शहरों में संक्रमित हुए इसकी जानकारी किसी लाइव क्रिकेट मैच के स्कोर बोर्ड की ही तरह मिल रही है। भारत में तो मीडिया चार कदम आगे जा कर संक्रमित  होने वालों की जाति-धर्म भी खोद कर निकाल लाती है और चीख-चीख कर बताती है। इतना ही नहीं, वे धर्म विशेष के लोगों पर झूठा आक्षेप लगाने का कोई मौका नहीं चूकता कि ये अन्य धर्मों के लोगों पर थूक कर या सब्जियों पर मूत कर कोरोना फैला रहे हैं।

इस तरह भारत का मीडिया कोरोना के नाम पर देश-दुनिया के सभी मुद्दे खा गया है। पर क्या आपको इसकी सूचना भी न्यूज चैनलों पर मिलती दिख रही है कि कैसे कामगार, मेहनतकश लोग भिखारी बनने को मजबूर होते जा रहे हैं?

मोदी न कमाने देगा न खाने को देगा

आयुक्त फरीदाबाद के घर के बाहर एक ऑटो खड़ा था और उसमे बैठी बुजुर्ग महिला का चेहरा चिलचिलाती धूप से लाल हो गया था। पूछने पर मामला पता चला, उनके पति आयुक्त आवास के गेट पर लिखित दरखास्त लिए खड़े हैं पास लेने के लिए। इतने में महिला के पति जिन्होंने अपना नाम रूपा बताया, ऑटो के पास निराश चेहरा लेकर वापस आये। पहले तो गरियाते रहे प्रशासन को, पर हमने ज्यों ही उनसे पूछा, किस कारण वह इतना नाराज हैं तो हमें सरकारी आदमी समझ डर से अचानक अपनी पत्नी पर बिफरने का नाटक कर बोले कि सरकारी काम टेम लागेगा, तुझे क्या मालूम।

दरअसल रूपा नामक यह व्यक्ति जिनकी उम्र करीब 60 वर्ष है, गर्मियों में फरीदाबाद नहर पार इलाके में मटका बेचने का काम करते हैं। क्योंकि अब गर्मी का मौसम चरम पर जाने को है और लॉकडाउन के खुलने की कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती इसलिए हम वो वाला पास चाहते हैं जिससे कि नूंह जिले में पड़ा तैयार माल जा कर उठा लाते। रूपा ने आगे बताया कि उनके घर में राशन नहीं बचा है और काम धंधा बिल्कुल बंद होने के कारण भूखे मरने की नौबत आ गयी है, अब जो मटके नहीं बेचे तो पूरे सीजन क्या खाऊंगा।

तो क्या पास मिला? रूपा ने ऑटो में बैठते हुए बताया कि पूरे दिन धूप में चक्कर कटवा दिया सरकारी बाबुओं ने। किसी ने 12 सेक्टर स्थित सरकारी दफ्तरों के कमरा नंबर 246 में जाने को बोला। वहां गए तो किसी और में फिर किसी और में, इस तरह बस कमरे ही घूम रहा हूँ मैं। कहीं काम बनता न देख अंत में आयुक्त के घर ही आ गए कि शायद यहाँ से सुनवाई हो। पर यहाँ गार्ड ने ही भगा दिया, अब आप बताओ साहब हम कहाँ अपनी बात रखें। सब बंद कर दिया तो ठीक है पर मेरी रोटी का इंतजाम तो करते और जो तुम नहीं कर सकते तो मुझे ही करने दो।

खून चूसने वालों के

फोटोशूट का मौसम है

वी केयर” नामक एक संस्था की गाड़ी फरीदाबाद शहर के रेड क्रॉस सोसाइटी के बाहर खड़ी थी। गाड़ी में बैठे व्यक्ति से बात करने पर उन्होंने अपना नाम करतार सिंह बताया और साथ ही बताया कि संस्था गरीबों और लाचारों को खाना पहुँचाने का काम रेड क्रॉस के साथ मिलकर कर रही है। पर ये साले इतने हारामखोर हैं कि अपने-अपने डब्बे भर लेते हैं कच्चे राशनों से। करतार ने बताया, वे पका हुआ भोजन लोगों तक वितरित कर रहे हैं। हमारे यह पूछने पर कि क्या बाईपास रोड पर भी खाना वितरण हुआ है। जी हाँ, हम ब्रेकफास्ट, लंच, और डिनर तीनो मील बाँट रहे हैं। मजदूर मोर्चा टीम ने आग्रह किया कि अगली दफा जब भी खाना बांटने जाएँ हमें भी जरूर बुलाएं। आजतक करतार सिंह का कोई फोन नहीं आया ।

मजे की बात है कि जिस करतार ने आजतक खाना बांटने के समय हमारी टीम को नहीं बुलाया उनका फोन अचानक 22 अप्रैल को इस बाबत आता है कि कमिश्नर मैडम नहर पार किसी सेंटर का उद्घाटन कर रही हैं जहाँ से भोजन वितरण होगा इसलिए कृपया आप आ जाएँ। शायद करतार सिंह ने गलतफहमी में मजदूर मोर्चा को फोटो खींचने और चापलूसी करने वाला अखबार जाना लिया होगा। अन्यथा गरीबों के पेट का मुद्दा छोड़ किसी  मैडम के फोटोशूट के लिए फोन क्यों किया जाता।

खाने में भी चोरी का तडक़ा

24 अप्रैल के पायनीयर अखबार फरीदाबाद के प्रथम पृष्ट की खबर को यदि सही मानें, जिसमे फरीदाबाद प्रशासन राहत कार्यों में दी जाने वाली भोजन सामग्री में झोल करता दिख रहा है, तो ऊपर ग्राउंड रिपोर्ट्स में जिन प्रसंगों का जिक्र किया गया है उनकी कडिय़ाँ भी जोड़ी जा सकती हैं।

रेडक्रॉस फरीदाबाद के सचिव, विकास ने एक चैनल को दिए अपने इंटरव्यू में कहा कि 50 से अधिक स्वंयसेवी संस्थाओं के माध्यम से इस महामारी में भोजन वितरण को संभाला जा रहा है। अकेले 15 सेक्टर का गुरुद्वारा रोज 30 से 35 हजार लोगों का भोजन प्रशासन को प्रदान कर रहा है। इसी प्रकार अन्य कई धार्मिक संस्थान भोजन का योगदान और उसे बांटने का जिम्मा उठाये हुए हैं।

किसान की चिंताओं को लेकर सरकार की अपनी तैयारी क्या है इसपर आजतक मनोहर लाल खट्टर और किसानो के मसीहा बनने का दावा ठोंकने वाले उप-मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने कोई सूचना नहीं दी। भीख मांग कर जनता में खाना बंटवाने का काम करने वाले ये नेता किस दिन के लिए चुने गए हैं।

ये सवाल हम नागरिकों को अपने आप से करना होगा। क्या अमेठी संसदीय क्षेत्र का रमेश जो असल में मेहनत करके एक सम्मान पूर्वक जीवन जीता था उसके भिखारी बन जाने के लिए खुद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी और हरियाणा मुख्मंत्री मनोहरलाल खट्टर के साथ-साथ अमेठी की सांसद स्मृति इरानी जिम्मेवार नहीं हैं?

एक देश, सामान नागरिक, पर अलग नियम

पहले उत्तर प्रदेश, फिर असम और अब हरियाणा की सरकार कोटा में पढऩे वाले अपने–अपने राज्य के स्टूडेंट्स को बसों के माध्यम से उनके घर वापस पहुंचा रही हैं। तो क्या ऐसी व्यवस्था उन लाखों मजदूरों के लिए नहीं की जा सकती जो भूखों मरने की दशा में हैं।

दरअसल सरकारों का प्लान यही है जिसमे मजदूर घर जा ही नहीं पाए, क्योंकि नोटबंदी के मास्टर स्ट्रोक से मोदी जी ने जिस अर्थव्यवस्था रुपी गेंद को स्टेडियम के बाहर दे मारा था, वह गेंद कोविड -19 के कारण पाताल लोक की तरफ लुढक़ने लगी है। इसलिए देर-सवेर लॉकडाउन खुलना ही है। तब इन्ही मजदूरों को पूंजीपतियों की फैक्ट्रियां में झोंकने की जरूरत सरकार को होगी, क्योंकि इन्ही पूंजीपतियों से ही पार्टी फण्ड के नाम पर करोड़ों के हो चुके चुनावों को लडऩे का पैसा राजनीतिक दलों को मिलता है। यूँ ही नहीं मोदी सरकार द्वारा काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 करने की साजिश भी रची जा रही है ।

लगेगी आग तो आएँगे कई मकान जद में

जिन मूलभूत अधिकारों को संविधान में सबसे महत्वपूर्ण होने की संज्ञा दी गयी, वे किन दिनों के लिए हैं। क्या रमेश जैसे करोड़ोंं मजदूरों के सम्मानपूर्वक जीवन जीने के अधिकार (अनुच्छेद 21) का उल्लंघन स्वंय विधानपालिका, कार्यपालिका और यहाँ तक कि न्यायपालिका नहीं कर रही? सनद रहे कि अनुच्छेद 21 का उलंघन आपातकाल में भी नहीं हो सकने का प्रावधान संविधान में दिया गया है। तो क्या जिनके स्वाभिमान आज रौंदे जा रहे हैं उनके द्वारा भविष्य में ऐसी व्यवस्था में यकीन किया जा सकेगा?

जिन लोगों को यह लगता है कि गरीब मजदूर कीड़े-मकौड़े हैं और हमारे पास अनाज के भण्डार या पैसे की ताकत है, उन्हें एक बार रमेश से सबक लेना चाहिए। जब एक वर्ग समाप्त होगा तो उसी आंच से दूसरे वर्ग भी मरेंगे। फर्क मात्र इतना है कि दूसरे वर्गों को मरता हुआ देखने के लिए वो गरीब वर्ग जीवित नहीं होगा जिसे टीवी पर इस लॉकडाउन के समय मरता देखते हुए लोग चाय की चुस्कियां लिया करते हैं।

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Mazdoor Morcha
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