फरीदाबाद (म.मो.) गतांक में सुधी पाठको ने पढा था कि एनएच तीन स्थित मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भर्ती मज़दूरों की देख-भाल के लिये नर्सिंग स्टाफ की कितनी भारी कमी है। जहां 6 मरीज़ों की देखभाल के लिये एक नर्सिंग स्टाफ होना चाहिये वहां 26 पर एक लगा है। ऐसे में मरीज़ों के भाई-बंधु दिन-रात बैठ कर अपने मरीज़ों की देख-भाल करते हैं। लेकिन जो मरीज़ अति गंभीर हालत में होते हैं उन्हें अपने भाई-बंधुओं की देख-रेख के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। ऐसे मरीज़ों को साधारण वार्ड की बजाय आईसीयू (गहन देख-रेख इकाई) में रखा जाता है।
राज्य भर के किसी भी ईएसआई अस्पताल में आईसीयू की व्यवस्था न होने के चलते ऐसे मरीज़ों को निजी व्यापारिक अस्पतालों में रैफर कर दिया जाता था जो मरीज़ों से भी (डरा-धमका) वसूली करते थे और ईएसआई से भी करोड़ों रुपये के बिल प्रति वर्ष वसूलते थे। रैफरल बिलों के भारी-भरकम भुगतान से बचने के लिये चाहिये तो यह था कि, अपनी आवश्यकता को देखते हुए, निगम अपने अस्पतालोंं में निजी अस्पतालों से भी बेहतर आईसीयू का निर्माण करता; परन्तु उस पर होने वाले खर्च को बचाने के लिये निगम ने मात्र 30 बेड का एक छाटा सा आईसीयू अपने इस एनएच-तीन वाले अस्पताल में एक ठेकेदार से खुलवा दिया।
जाहिर है ठेकेदार यहां कोई पुण्य कमाने तो आया नहीं था, आधी-अधूरी सेवाऐ देने के बावजूद भी जब उसे मुनाफे की जगह घाटा होने लगा तो वह छोड़ भागा। और भागा भी ऐसा कि उस यूनिट को ताला लगा गया जिसे निगम दो घंटे में भी खुलवा नहीं सका।
इसके बंद होते ही फिर रैफरल बिलों के बढऩे की समस्या से बचने के लिये निगम ने मरीज़ों को दिल्ली के सरकारी अस्पतालों की ओर धकेलना शुरू किया। कुछ प्रभावशाली मरीज़ों को स्थानीय निजी अस्पतालों में भी भेजा जाने लगा।
करीब साल भर के इस ड्रामे के बाद इसी अस्पताल में 20 बेड की एक नकली सी आईसीयू बनाई गयी। जहां 100 बेडेड आईसीयू की जरूरत हो वहां 20 बेड वाली तो ऊंट के मुंह में जीरे के समान है और नकली इसलिये कि 20 बेड पर जहां 70 नर्स व 5 विशेषज्ञ डॉ. हर वक्त रहने आवश्यक हैं वहां केवल 20 नर्स ही तैनात हैं। जाहिर है कोई भी नर्स 24 घंटे पूरा सप्ताह तो तैनात रह नहीं सकता। इस लिये यहां आवश्यकता है 70 नर्सों की और डॉक्टर भी एनेस्थिसिया व मेडिसन के होने चाहिये। परन्तु जब पूरे अस्पताल में ही 40 अनेस्थिसिया डॉक्टरों की जगह कुल 12 डॉक्टर हों तो आइसीयू में लगाने को कहां से आयेंगे?
लगभग यही स्थिति मेडिसन विभाग के डॉक्टरों की हैं। इन हालात में आइसीयू में डाले जाने वाले मरीजों से पिंड छुड़ाने के लिये उन्हें दिल्ली के लिये रैफर करके एबुलेंस में डाल कर एस या सफदरजंग मे धकेल दिया जाता है जहां पहले से ही हाउसफुल चल रहा है। समर्थ मरीज़ किसी निजी अस्पताल में अपना इलाज कराता है और असमर्थ मौत को गले लगाता है।
यहां गौरतलब बात यह है कि मोदी सरकार एक ओर तो बीते ढाई वर्षों से, चिकित्सा के नाम पर आयुष्मान का ड्रामा खेलने में जुटी है वहीं दूसरी ओर मज़दूरों के वेतन से साढे छ: प्रतिशत की वसूली कर लाखों करोड़ के खजाने पर कुंडली मार कर भी मज़दूरों को वांच्छित चिकित्सा सुविधा प्रदान करने से हाथ खींच रही है।