नये किसान कानून से सबसे ज्यादा फ़ायदा रिलायंस रिटेल को होगा!
शिशिर सोनी
पिंक पेपर्स यानी आर्थिक अखबारों की आज बड़ी खबर है – केकेआर जैसी ग्लोबल निवेशक कंपनी रिलायंस रिटेल में 5 हज़ार 500 करोड़ रुपये लगायेगी।
आखिर क्यों? जिस देश की जीडीपी माईनस 23.9 फीसदी पर लुढक़ गई हो उस देश की बड़े निजी सेक्टर में भारी भरकम निवेश केकेआर जैसी कंपनी क्यों कर रही है? क्योंकि निवेशक कंपनी देख रही है कि देश की जीडीपी भले ही रसातल में जा रही हो रिलायंस, यानी अंबानी की बैलेंस सीट कुलांचे भर रही है। कोरोना काल में जब सब धंधे चौपट हैं, देश में अडानी, अंबानी बमबम हैं। चलिए कोई तो है जो आपदा को अवसर बना रहा है। वरना आमजन तो आपदा में पहले विपदा झेल रहा है। कई परिवारों में तो धंधा चौपट होने, नौकरी छूटने के अपार दुखों के बीच कोरोना से मौत का मातम पसरा है।
इस बात को समझना होगा कि केकेआर कंपनी ने कृषि विधेयक पास होने के बाद रिलायंस रिटेल में पैसे लगाए हैं। उन्हें पता है, नये विधेयक के कानून का शक्ल अख्तियार करने के बाद सबसे ज्यादा फ़ायदा रिलायंस रिटेल को होगा। देश भर में फैले रिलायंस की दुकानों से कृषि उपज बिकेगी। बड़े बड़े गोदामों में उपज के भंडारण की कानूनी सुविधा मिल जाने के बाद किसानो से उनकी उपज सस्ते दर पर खरीद कर भंडारण किया जायेगा। फिर ऊँची कीमत पर हम आपको बेचा जायेगा। देश का लुटा पिटा मध्यम वर्ग सौ रुपया किलो आलू, प्याज खरीदते हुए आँसू बहायेगा। नये कानून में से आलू, प्याज, तेल, दालें समेत रोजमर्रा के अन्य खाद्य पदार्थों को एसेंशियल कोमोडिटी एक्ट से बाहर कर दिया गया है। सो, अब जितना चाहे निजी कंपनियां खरीदें। जितना चाहें, भंडारण करें। बाजार में कृत्रिम कमी पैदा करें। फिर मुँह मांगे दामों पर खाद्य पदार्थ बेचें। केकेआर ये खेल समझ रहा है, सो मोटी कमाई की आशा लिए निवेश कर रहा है।
बड़े किसान, जिनके पास भंडारण की सुविधा है। जो पहली उपज बाजार में बेचने के बजाए उसे स्टोर करने में सक्षम हैं। दूसरी उपज पर पहली को बिना बेचे पूंजी लगाने में सक्षम हैं इस खेल का हिस्सा होंगे। छोटे किसान उपज औने पौने दाम में बेच कर फिर दूसरी उपज के लिए खेती में लगाने को विवश होगा। इसलिए रेट को भी कानूनी रूप देकर उसको बेंचमार्क बनाना जरूरी है ताकि उससे कम में कोई निजी कंपनी उपज न खरीद सके। हालांकि इस स्थिति में भी खाद्य वस्तुओं के दाम तेजी से बढ़ेंगे, मध्यम वर्ग की थाली, प्लेट में सिमटेगी। गरीब बाप बाप करेगा।
मुझे समझ नहीं आता कि जब बिहार में पहले से ही कृषि मंडी को खत्म किया गया। और लगभग ऐसी ही व्यवस्था लागू की गई है तो वहाँ के मॉडल में किसानो को कितना लाभ हुआ, इसकी गणना केंद्र ने क्यों नहीं की? आखिर बिहार में भी जदयू के साथ मिलकर भाजपा सरकार चला आ रही है। वो कह सकती थी कि देखो बिहार के किसानो को कितने खुशहाल हैं? मगर वो ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि बिहार में किसानो की दुर्गति है। हालत ये है कि देश भर में सबसे कम आमदनी बिहार के किसानो को होती है। सरकार के आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि किसानी से राष्ट्रीय औसत आय 64 हज़ार 262 रुपया सालाना है। बिहार के किसानो की आय साल में 44 हज़ार 172 रुपया ही है। जब कि पंजाब में किसान साल में 2 लाख 17 हज़ार 459 रुपया अर्जित कर रहा है। हरियाणा का किसान एक लाख 74 हज़ार रुपया कमा रहा है।
बिहार में अगर महीने में किसान महज 3 हज़ार 538 रुपया किसी तरह उपार्जित कर पा रहा है तो पश्चिम बंगाल में 3980, छत्तीसगढ़ में 5177, ओडिशा में 4976, यूपी में 4923, महाराष्ट्र में 7986 रुपया किसान कमाता है। किसानी से आय में खेती, मजदूरी, पशुपालन और इससे संबंधित अन्य आय भी शामिल हैं। शुद्ध किसानी से आय सोचिये कितनी कम होगी!
इससे आप अंदाजा लगाइये कि बिना मंडी और बिना बिचौलिए के, जहाँ चाहें वहाँ बेच के, बिहार के किसान जब फटेहाली में हैं, राष्ट्रीय औसत से भी लगभग आधा कम किसानी से कमाते हैं तो देश भर में ये व्यवस्था लागू करने से किसानो को कैसे लाभ मिलेगा? किसानो को लाभ तभी मिलेगा जब एमएसपी को कानूनी जामा पहनाया जाए!
किसानो का मामला निपट भी गया तो भी खाद्य वस्तुओं के अनाप शनाप जमा करने की कानूनी छूट देकर क्या सरकार जमाख़ोरी को बढावा नहीं दे रही? क्या इससे खाद्य वस्तुओं की कीमतें नहीं बढ़ेंगी? ऐसा हुआ तो सरकार का नियंत्रण कैसे होगा? बड़े अनुत्तरित सवाल हैं।