दरअसल, किसी देश की आजादी की लड़ाई सबसे बड़ी होती है। अगर आप कोई संगठन हैं और उस आंदोलन में शामिल नहीं हैं तो वर्षों बाद वो बातें और घटनाएँ आपका पीछा करती हैं। आरएसएस और भाजपा के साथ यही हो रहा है

दरअसल, किसी देश की आजादी की लड़ाई सबसे बड़ी होती है। अगर आप कोई संगठन हैं और उस आंदोलन में शामिल नहीं हैं तो वर्षों बाद वो बातें और घटनाएँ आपका पीछा करती हैं। आरएसएस और भाजपा के साथ यही हो रहा है
December 28 15:43 2020

अटल बिहारी वाजपेयी को फिर से स्थापित करने की कोशिशं

यूसुफ किरमानी

मोदी सरकार ने 25 दिसम्बर 2020 को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन मनाते हुए उन्हें फिर से स्वतंत्रता सेनानी स्थापित करने की कोशिश की। इसलिए पुराने तथ्यों को फिर से कुरेदना ज़रूरी है। भाजपा के पास अटल ही एकमात्र ब्रह्मास्त्र है जिसके ज़रिए वो लोग अपना नाता स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ते रहते हैं।

यह तो सबको पता ही है कि भाजपा का जन्म आरएसएस से हुआ। भाजपा में आये तमाम लोग सबसे पहले संघ के स्वयंसेवक या प्रचारक रहे। 1925 में नागपुर में अपनी पैदाइश के समय से ही संघ ने अपना राजनीतिक विंग हमेशा अलग रखा। पहले वह हिन्दू महासभा था, फिर जनसंघ हुआ और फिर भारतीय जनता पार्टी यानी मौजूदा दौर की भाजपा में बदल गया।

कुछ ऐतिहासिक तथ्य और प्रमाणित दस्तावेज हैं जिन्हें आरएसएस, जनसंघ के बलराज मधोक, भाजपा के अटल और आडवाणी कभी झुठला नहीं सके।

आरएसएस  संस्थापक गोलवरकर ने भारत में अंग्रेज़ों के शासन की हिमायत की। सावरकर अंडमान जेल में अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगने के बाद बाहर आये। सावरकर के चेले नाथूराम गोडसे ने ही गांधी जी की हत्या की।

आरएसएस के उस समय के राजनीतिक विंग हिन्दू महासभा ने जिन्ना की टू नेशन थ्योरी (दो राष्ट्र का सिद्धांत) हिन्दुस्तान- पाकिस्तान का समर्थन किया। आडवाणी ने एक बार जिन्ना की तारीफ़ कर दी तो संघ ने उन्हें हमेशा के लिए किनारे कर दिया। दरअसल, जिन्ना की तारीफ़ का मतलब था, उन सारे पापों का बाहर आना जो आरएसएस ने जिन्ना के साथ मिलकर उस समय किया था। इसलिए जब आडवाणी ने अनजाने में जिन्ना की तारीफ़ की तो संघ फ़ौरन चौकन्ना हो गया। जिन्ना संघ के लिए एक प्रेत है, जिसके ज़िन्दा रहने का मतलब है संघ के राष्ट्रवाद का सिद्धांत का चूर चूर हो जाना।

बहरहाल, हमारी चर्चा का विषय अटल बिहारी वाजपेयी हैं। संघ और जिन्ना के रिश्ते नहीं। हम दोनों को कट्टरपंथी मानकर उन्हें उनके हाल पर छोडक़र आगे बढ़ते हैं।

हालाँकि ये बहुत पहले साबित हो चुका है कि महात्मा गांधी ने 1942 में जब अंग्रेज़ों भारत छोड़ो नारा देकर सत्याग्रह शुरू किया था, उस समय अटल का आजादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं था। अटल उस समय 11वीं क्लास में पढ़ रहे थे। वह आगरा के पास बटेश्वर नामक गाँव में लीलाधर वाजपेयी नामक स्वतंत्रता सेनानी की उस सभा में मौजूद थे जो गांधी जी के सत्याग्रह के समर्थन में आयोजित की गई थी। पुलिस अटल और उनके भाई को वहीं से पकडक़र ले गई। इसके बाद पुलिस ने उन्हें छोडऩे के लिए यह शर्त रखी कि अटल को लीलाधर वाजपेयी के खिलाफ गवाही देनी पड़ेगी। अटल मान गये। उन्हें छोड़ दिया गया।

अटल ने खुद एक लेख लिखा – संघ मेरी आत्मा। उन्होंने बटेश्वर की घटना और जेल जाने की बात का ज़िक्र किया है। लेकिन माफ़ी वाली बात नहीं लिखी। लेकिन बाद में उन्होंने द हिन्दू और फ्रंटलाइन के संपादक रहे और इस देश के सबसे विश्वसनीय पत्रकार एन. राम को दिए इंटरव्यू में स्वीकार किया किया कि उन्होंने एक कागज़़ पर हस्ताक्षर किए थे। वह उर्दू में था और उन्हें पता नहीं था कि क्या लिखा है। बता दें कि अंग्रेज़ों के समय पुलिस की भाषा उर्दू ही हुआ करती थी। पुलिस और तहसील रेकॉर्ड में आज भी उर्दू के कई शब्द प्रचलित हैं।

अब मैं फ्रंटलाइन पत्रिका में फऱवरी 1998 में प्रकाशित उस रिपोर्ट को ज्यों का त्यों रख रहा हूँ, जो वाजपेयी का इंटरव्यू लेने के बाद छपी थी। यह रिपोर्ट अंग्रेज़ी में थी।

(बात उन दिनों की है जब महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था. यह आंदोलन नौ अगस्त, 1942 को शुरू हुआ था. उस समय अटल बिहारी वाजपेयी 16 साल के थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सक्रिय सदस्य थे. आरएसएस ने भारत छोड़ो आंदोलन से दूरी बना कर रखी थी.

बहरहाल, उन्हीं दिनों वाजपेयी के गांव बटेश्वर में एक घटना घटी. 27 अगस्त, 1942 को ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ गांव के बाज़ार में 200 की संख्या में लोग इकठ्ठा हुए. बाद में उन्होंने वन विभाग की एक इमारत में तोडफ़ोड़ की. रिपोर्ट के मुताबिक़ उस समय अटल बिहारी वाजपेयी अपने भाई प्रेम बिहारी वाजपेयी के साथ वहां से कुछ दूर खड़े थे. इस घटना के अगले दिन पुलिस ने गांव में छापामारी की और कई लोगों को गिरफ़्तार कर आगरा जेल भेज दिया गया. वाजपेयी और उनके भाई भी उनमें शामिल थे.

इस घटना के बाद एक सितंबर, 1942 को वाजपेयी ने मजिस्ट्रेट एस. हसन के सामने एक बयान दिया. उन्होंने कहा, ‘27 अगस्त, 1942 को बटेश्वर बाज़ार में प्रदर्शनकारी इकट्ठे हुए थे.’ उन्होंने बताया कि ‘दोपहर कऱीब दो बजे ककुआ उर्फ़ लीलाधर वाजपेयी और महुआ वहां आए और भाषण दिया. उन्होंने लोगों को वन क़ानूनों का उल्लंघन करने को राज़ी किया. (उसके बाद) 200 लोग वन विभाग के यहां गए. मैं अपने भाई के साथ उस भीड़ में शामिल था. मैं और मेरा भाई पीछे खड़े रहे. बाक़ी लोग इमारत में घुस गए. मैं वहां ककुआ और महुआ के अलावा किसी को नहीं जानता… मुझे लगा कि (इमारत की) ईंटें गिरने वाली हैं. मुझे नहीं पता दीवार कौन गिरा रहा था, लेकिन उसकी ईंटें निश्चित ही गिर रही थीं… मैं और मेरा भाई मयपुरा जाने लगे. भीड़ हमारे पीछे थी. जिन लोगों (ककुआ और महुआ) का ज़िक्र पहले किया वे मवेशियों के बाड़े से होते हुए बाहर निकल आए थे. उसके बाद भीड़ बिचकोली की तरफ़ जाने लगी. वन विभाग में दस-बारह लोग थे. मैं 100 गज़़ की दूरी पर खड़ा था. सरकारी इमारत गिराने में मेरा कोई हाथ नहीं था. उसके बाद हम अपने-अपने घर वापस लौट गए.’

इस बयान के बाद जज एस हसन ने अपनी टिप्पणी दर्ज कराई. उसमें उन्होंने कहा कि अटल बिहारी वाजपेयी को स्पष्ट कर दिया गया था कि वे बयान देने के लिए बाध्य नहीं हैं, और अगर वे ऐसा करते हुए कोई बात स्वीकार करते हैं तो उसका इस्तेमाल उनके ख़िलाफ़ हो सकता है. जज हसन ने कहा, ‘मुझे यक़ीन है कि यह बयान स्वेच्छा से दिया गया. यह मेरी सुनवाई के दौरान लिया गया और अटल बिहारी को पढ़ कर सुनाया गया. उन्होंने माना कि बयान सही है और पूरी ज़िम्मेदारी के साथ दिया गया है.’ वाजपेयी के उस बयान को उर्दू में लिखा गया था. दस्तावेज़ पर उनके हस्ताक्षर भी थे.)(यह अंश साभार फ्रंटलाइन पत्रिका)

बेहद दिलचस्प और ऐसे हुई पुष्टि

1998 में जब यह रिपोर्ट छपी तो उस समय स्वतंत्रता सेनानी लीलाधर वाजपेयी जिन्दा थे। उन्होंने उस समय फ्रंटलाइन पत्रिका को इंटरव्यू दिया था। जो आज भी मौजूद है। लीलाधर ने उस समय कहा था – अटल के बयान से अभियोजन पक्ष को उनके ख़िलाफ़ केस बनाने में काफ़ी मदद मिली और उन्हें सज़ा हुई। महुआ उर्फ़ शिवकुमार को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया गया। लीलाधर ने यह भी बताया कि उनके नाम का ज़िक्र करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी अकेले नहीं थे। गांव के और लोगों ने भी पुलिस को उनके नाम बताए थे। लेकिन वे सभी अनपढ़  थे, जबकि अटल और उनके भाई अच्छे पढ़े-लिखे थे। जब 2004 में लोकसभा चुनाव हो रहे थे तो उस समय वाजपेयी के ख़िलाफ़ जाने-माने वकील राम जेठमलानी चुनाव लड़ रहे थे। उस दौरान वे एक प्रेस कॉन्फ्ऱेंस  में लीलाधर वाजपेयी को ले आए और वही दावा किया कि अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वतंत्रता सेनानियों के ख़िलाफ़ गवाही दी थी।

क्यों परेशान रहते हैं दक्षिणपंथी

दरअसल, किसी देश की आजादी की लड़ाई सबसे बड़ी होती है। अगर आप कोई संगठन हैं और उस आंदोलन में शामिल नहीं हैं तो वर्षों बाद वो बातें और घटनाएँ आपका पीछा करती हैं। आरएसएस और भाजपा के साथ यही हो रहा है। उनके पास भगत सिंह, बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खान, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सर सैयद अहमद, बाबा साहब आंबेडकर जैसे चरित्र नहीं हैं जिससे वे अपना योगदान साबित कर सकें। हैरानी होती है कि जिस तानाशाह इंदिरा गांधी को अटल ने कभी दुर्गा की उपाधि दी थी, आज अटल को एक बड़े व्यक्तित्व के रूप में पेश करने की कोशिश हो रही है। वो अटल जो गुजरात दंगों के दौरान लाचार रहा और दबी ज़बान से मोदी को राजधर्म याद दिलाता रहा।

(वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक)

 

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