फरीदाबाद से गोरखपुर तक खुले में शौच जारी अधिकारियों का अपनी जेबें भरना भी
ग्राउंड जीरो से विवेक कुमार
गोधूलि बेला ढलते हुए अँधेरे ने पूरे गाँव को अपने आगोश में ले लिया। सामने से आता महिलाओं का झुण्ड वो भी अँधेरा ढलने के बाद कोई आम बात नहीं। ज्यों ही मैं उनके करीब से गुजरा सबने अपनी साड़ी का पल्लू मुंह में दबा लिया और भरसक प्रयास किया कि मैं किसी की शक्ल न देख सकूँ। जबकि सभी मुझे और मैं सबको मात्र आवाज भर से पहचान सकते हैं। तो ऐसा क्यों हुआ जो उन सबने अपना चेहरा छुपाने का यत्न किया। कारण है खुले में शौच।
पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय, भारत सरकार की योजना ‘‘सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान ‘‘-वर्ष 1999-2000 में केवल 4 जिलों में प्रारम्भ किया गया। अभियान कार्यक्रम का क्रियान्वयन जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग से पंचायती राज विभाग को हस्तान्तरित किया गया। 1 अप्रैल, 2012 से सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान का नाम ‘‘निर्मल भारत अभियान ‘‘कर दिया गया। तत्पश्चात् 2 अक्टूबर, 2014 से स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) का नाम दिया गया है। इस मिशन का उद्देश्य महात्मा गांधी की 150 वीं वर्षगांठ- 2 अक्टूबर, 2019 तक भारत को खुले में शौच से मुक्त करना है।
इसमें शामिल–
ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के सामान्य जीवन स्तर में सुधार लाना।
वर्ष 2019 तक स्वच्छ भारत का विजन प्राप्त करने हेतु ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता कवरेज की गति तेज करना और सभी ग्राम पंचायतों को निर्मल स्तर तक लाना।
जागरूकता सृजन और स्वास्थ्य शिक्षा के माध्यम से स्थाई स्वच्छता को बढ़ावा देकर, समुदाय को और पंचायती राज संस्थाओं को प्रेरित करना।
पारिस्थितिकीय रूप से सुरक्षित एवं स्थाई स्वच्छता के लिए लागत-प्रभावी संगत प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देना।
ग्रामीण क्षेत्रों में सम्पूर्ण साफ-सफाई के लिए वैज्ञानिक ठोस एवं तरल अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए, समुदाय-प्रबंधित प्रणालियों का विकास कराना।
सरकार के इन कागजों पर बनाये प्लान और गाँधी के नाम पर सभी को खुश करने की चालों की जमीनी हकीकत क्या है इसे जानने के लिए यूँ तो पाठक अपने दायें-बाएं के हालात भी देख सकते हैं, पर क्योंकि मीडिया आपको देखने नहीं देगा इसलिए मजदूर मोर्चा की इस ग्राउंड रिपोर्ट के माध्यम से आप स्वच्छ भारत अभियान में मोदी सरकार के अश्वमेध यज्ञ की सच्चाई परख सकते हैं।
गए हफ्ते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर जिले की बांसगांव तहसील के ग्राम पाली के अपने यात्रा वृतांत में हमने आपको उज्जवला और आयुष्मान भारत योजना की जमीनी हकीकत दिखाई थी। इस अंक में हम आपको इसी इलाके में स्वच्छ भारत अभियान के शौचालयों की हकीकत बताने का प्रयास करेंगे।
सत्तर वर्ष के पांचू पाली गाँव के चौराहे पर 40 वर्षों से जूता सिलने का काम कर रहे हैं। रहने को घर तक नहीं है, सिवा एक रसोई के, तो शौचालय कहाँ से होगा। पर पांचू ने बताया कि उनके भाई को एक शौचालय मिला है। शौचालय के लिए गाँव के एक भूमिहार लडक़े ने दो हजार रुपये लिए और तीन साल इंतजार कर खुद उनके भाई ने बहुत धक्के खाने के बाद शौचालय प्राप्त किया। अब जब शौचालय बन गया है तो उसका इस्तेमाल करना बढ़ी विपदा बन गई है कि पानी कहाँ से लायें इतना जो उसे साफ कर सकें। इसलिए पांचू के भाई 65 वर्षीय जुठई ने उसमे उपले रख कर ताला मार दिया है।
पांचू की ही तरह 50 वर्षीय जोलई ने बताया कि शौचालय का पैसा कई लोगों को मिला गाँव में, पर उसके लिए पहले खुद बनवाना पड़ रहा था कई लोगों को शौचालय का कुछ भाग, तब जा कर आधा पैसा सरकार दे रही थी। पैसा देने में भी बेईमानी का दौर खुल के चला। जहाँ 12000 रुपया मिलना तय हुआ था इस कार्यक्रम के तहत, तो वहां मात्र 10 से 11 हजार रुपये ही मिलते हैं लाभार्थी को। ऐसा क्यों, एक हजार रुपये ग्राम प्रधान रख लेता है और इस बात की जानकारी ऊपर तक के अधिकारियों को भी है।
स्वच्छ भारत अभियान की असल जिम्मेदारी जिन सफाई कर्मियों के कन्धों पर है उन्ही को शौचालय के नाम पर घूस अपने अधिकारियों को पकडानी पड़ती है । शौचालयों का ऐसा ही एक फर्जीवाड़ा हरियाणा के फरीदाबाद जिले में भी सामने आया हुआ है, जिसमे पार्षदों ने अधिकारियों पर इस योजना में धांधली करने के गंभीर आरोप लगाये हैं। आरोपों में पाया गया कि 12464 लोगों ने 8.4 करोड़ रुपये शौचालय के नाम पर लिए और जब वेरिफिकेशन हुई तो सभी गायब मिले।
वर्ष 2016-17 में हरियाणा में शौचालय बनाने की योजना को शुरू किया गया। फरीदाबाद निगम को 22000 आवेदन प्राप्त हुए जिनमे से 18000 को चुना गया बतौर लाभार्थी। लेकिन जब दूसरी किश्त के लिए दोबारा लोगों को ढूंढा गया तो ये लाभार्थी नदारद मिले। जिसका मतलब है ऐसे कोई लाभार्थी असलियत में थे भी या नहीं यही एक बहुत बड़ा झूठ है। इससे कयास लगाए जा रहे हैं कि सेवानिवृत हो चुके निगम अधिकारी भी इस घपले में युद्धस्तर पर शामिल थे।
गोरखपुर में शौचालयों का नया नामकरण अपनी आदत के अनुरूप मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने कर दिया है। शौचालयों का नाम रखा है “इज्जत घर”। वो बात अलग है कि प्रदेश में इज्जत लूटने का धंधा जम कर सरकार के विधायकों और मंत्रियों द्वारा ही हो रहा है। लगभग सभी शौचालयों पर ताला जड़ा हुआ है और जनता हमेशा की ही तरह खुले में शौच को जा रही है। बेशक मोदी-योगी सरकारी वेबसाइटों पर फर्जी आंकड़े डलवाते जाएँ पर जमीनी हकीकत यही है। इसके पीछे ठोस कारण भी हैं। मुख्य है, योजना का समावेशी रूपरेखा का न होना।
अव्वल तो 12 हजार रुपये में आज शौचालय बनाना ही असंभव जैसा है। अब जब इसी दाम में बनवाना है तो जाहिर है शौचालयों के इस्तेमाल में जो गड्ढा बनेगा उसकी गहराई और चौडाई क्या होगी? अधिकतर लोगों ने खानापूर्ती के लिए चार-चार फीट के गड्ढे खुदवा कर सरकार से पैसे लिए और अब हाल है कि ये गड्ढे मात्र कुछ महीने में भर जाएंगे। ऐसे में सवाल ये है कि इन गड्ढों को खाली कैसे किया जाएगा?
आर्थिक नजरिए से देखें तो इस पूरी योजना में ही पेंच ढीले पड़े हैं। जब किसी सीवर सिस्टम की व्ययस्था नहीं की गई है तो गड्ढा खाली कैसे होगा? क्या 100 रुपया भी दिन भर में न कमा पाने वाला किसी टैंकर वाले को एक हजार दे कर गड्ढा खाली कराने का खर्च उठा सकता है?
अब इस योजना का सामाजिक पहलू भी जाना लें। या तो इन गड्ढों को इस्तेमाल करने वाला खुद खाली करेगा या फिर दबंग किस्म के लोग विभिन्न समुदायों पर खाली करने का दबाव बना सकते हैं जो उच्चतम न्यायलय के हाथ से मैला न उठाने के 1993 के फैसले का उल्लंघन होगा। मना करने की सूरत में भारतीय समाज के पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए दबंगों का क्रोधित होकर समुदाय विशेष पर अपना कहर बरपाना अवश्यम्भावी है।
तो बिना किसी समावेशी दूरदर्शिता के ऐसी हवाई योजनायें जमीन पर उतार कर शहरों में अपने पोस्टर लगवाना अलग बात है। पर असलियत में ऐसी योजनाओं का पहले दिन से ही हाशिये पर जा चुके लोगों के सामने दम तोडना और अफसरों की जेब भरना ही नीयति है।