किसान तो सडक़ों पर उतरे लेकिन मज़दूर नदारद
किसानों एवं किसानी को बर्बाद करने के लिये मोदी सरकार द्वारा बनाये गये तीन कानूनों के विरुद्ध देश भर के किसान तो उग्र रूप धारण करके सडक़ों पर उतर आये; लेकिन औद्योगिक मज़दूरों का गला घोंटने वाले हाल ही में बनाये गये काले कानूनों के विरुद्ध देश भर के किसी भी मज़दूर संगठन ने चूं तक नहीं की है।
सुधी पाठक बखूबी देख रहें होंगे कि मोदी सरकार अपने कॉर्पोरेट मित्रों के मुनाफे की हवस मिटाने के लिये किस तरह से खेती किसानी को-उनका निवाला बनाने जा रही है। संसद के इसी सत्र में औद्योगिक मज़दूरों के वैधानिक अधिकारों को छीनते हुये मोदी ने उन कारखानेदारों को, जिनके पास 300 तक मज़दूर काम करते हैं, अधिकार दिया है कि वे जब चाहें जैसे चाहें मज़दूरों की छटनी कर सकते हैं और चाहें तो कारखाना बंद भी कर सकते हैं।
लेकिन किसी भी कारखाने में मज़दूरों की सही संख्या मापने का कोई पुख्ता उपाय नही है वह अपने एक ही कारखाने में 300-300 मज़दूरों की एक से अधिक कितनी ही इकाइयां खोल सकता है, कोई पूछने वाला नहीं। इतना ही नहीं 400 मज़दूरों से काम लेने वाला यदि रजिस्टर में मात्र 300 ही दिखाये तो भी उसे कोई पूछने वाला नहीं, क्योंकि जिसको पूछने का अधिकार सरकार ने दिया है वह लेबर महकमा पहले से ही बिका हुआ है। इतना सब भी मोदी को का$फी नहीं लगा तो उसने मज़दूरों द्वारा हड़ताल करने तक पर भी पाबंदी लगा दी। नये कानून में कहा गया है कि हड़ताल से पहले मज़दूरों को 14 दिन का नोटिस देना होगा। विदित है कि इस तरह के नोटिसों के जरिये हड़ताल व आंदोलन नहीं चला करते।
जिस किसान को ट्रेड यूनियन से जुड़े मज़दूरों की अपेक्षा असंगठित एवं अज्ञानी माना गया है, वह किसान तो आज पूरे जोर-शोर से सरकार से इस कदर जूझ रही है कि सरकार की चूलें हिल गई हैं। इसके विपरीत बड़े-बड़े बैनर व लंबे-चौड़े ट्रेड यूनियन के झंडे गाड़े व ऑफिस सजाये बैठे तमाम नेताओं को जैसे सांप सूंघ गया हो। असल मसला यह है कि आज मज़दूर नेता तो हैं लेकिन उनके साथ चलने वाले मज़दूर नहीं रह गये।