कभी बोलते हैं बईठे रहो गाड़ी चल रही है उसी में जाना, फिर कहते हैं पईसा दे दो रेलगाड़ी का। अरे जब गाड़ी का पइसा होता तो हम खुदै नहीं चले गए होते टिरक वाले को तीन हजार देकर। वो जो हवाईजहाज वाले हैं उनको तो फिरी में उठा-उठा के ला रहे हैं और हम सबको पैदलो नहीं जाने दे रहे।

कभी बोलते हैं बईठे रहो गाड़ी चल रही है उसी में जाना, फिर कहते हैं पईसा दे दो रेलगाड़ी का। अरे जब गाड़ी का पइसा होता तो हम खुदै नहीं चले गए होते टिरक वाले को तीन हजार देकर। वो जो हवाईजहाज वाले हैं उनको तो फिरी में उठा-उठा के ला रहे हैं और हम सबको पैदलो नहीं जाने दे रहे।
May 17 17:47 2020

विवेक कुमार की ग्राउंड रिपोर्ट

बीस लाख करोड़ की रकम में कितने जीरो आएंगे, ये भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ही नहीं खुद इस पैकेज की घोषणा करने वाले प्रधानमंत्री मोदी भी शायद न बता सकें। बहरहाल इस पैकेज पर 130 करोड़ जनता के अलग-अलग वर्ग में अलग-अलग प्रतिक्रिया है। ‘मजदूर मोर्चा’ ने  ग्राउंड रिपोर्ट में इसे जानने का प्रयत्न किया।

‘ये इतने सूअर हैं कि मानेंगे नहीं, सरकार बोल-बोल कर मर जाएगी पर ये नहीं रुकेंगे।’ सडक़ पर जाते मजदूरों की ओर इशारा कर 36 वर्षीय संकेत ने कहा। संकेत का फरीदाबाद में चायनीज फूड का छोटा सा आउटलेट है। संकेत ने बताया कि लॉकडाउन के पहले से ही काम मंदा हो गया था पर अब काफी दिक्कत हो रही है। क्या सरकार ने जो बीस लाख करोड़ का पैकेज दिया है उससे कुछ उम्मीद है? बिल्कुल, इतना सारा पैसा आजतक कोई नहीं दे सका था और पूरी दुनिया में ये सबसे बड़ा राहत का पैकेज है। अब हमारी अर्थ्व्यवस्था ठीक हो जाएगी पर ये साले अनपढ़ (मजदूर) एक जगह रुकें तब तो कोरोना रुकेगा और कुछ काम बढ़ेगा आगे।

संकेत जिन अपशब्दों का इस्तेमाल पैदल जाते मजदूरों के लिए कर रहे थे उनमें से ऊपर लिखे कुछ अपशब्द ही हम यहाँ पाठकों के समक्ष रख सकते हैं। संकेत के साथी हेमंत भाषा पर नियंत्रण रखते हैं। संकेत के काम में वह भी पार्टनर हैं। जिस फूड आउटलेट की बात संकेत कर रहे हैं वह अब तक तो था, पर हालात ऐसे ही रहे तो जल्दी ही वो “है” से “था” हो जाएगा। तो क्या स्वीगी और जोमैटो के माध्यम से भी वे अपना खाना नहीं बेच पा रहे? हेमंत ने बताया कि असल में कोरोना का डर इतना फैला है कि कोई खाना मंगा भी नहीं रहा तो हम दुकान खोल कर क्या करें।

हांलाकि हेमन्त ने कहा कि उन्हें लगता है जबसे नोट्बंदी हुई है तबसे हर किस्म का काम पिट गया है। इसका सबसे बड़ा सबूत हेमंत खुद को ही मानते हैं। नोट्बंदी से पहले उनका प्रिंटिंग का काम था जो प्रतिस्पर्धा बहुत अधिक होने के कारण कठिनाई से साँसे तो गिन रहा था पर जिन्दा था। तभी नरेंद्र मोदी नामक झोला छाप आरएमपी डाक्टर आया और हेमंत के काम का वेंटीलेटर हटा कर उसकी अंतिम साँसों को भी समाप्त कर गया। उसके बाद ही हेमंत ने संकेत को ज्वाइन किया और अब नए वेंटीलेटर की जरूरत है। विडम्बना देखिये कि वेंटीलेटर को चलाने वाला डाक्टर फिर वही आरएमपी मोदी ही है। बीस लाख करोड़ के पैकेज पर हेमंत इतना कह कर मुस्कुरा दिए कि एक आदमी इतनी अधिक गलतियाँ तो नहीं करेगा, इसलिए उम्मीद है इस पैकेज में उन्हें भी कुछ मिल जाएगा।

भारत सरकार के उपक्रम में कार्यरत 35 वर्षीय ज्योति का मानना है कि सरकार का काम देश की सुरक्षा करना है इससे अधिक नहीं। ज्योति के मुताबिक देश की सुरक्षा से उनका अर्थ है पाकिस्तान जैसे देश से आने वाले आतंकवादियों से या चीन से उभरते खतरे से। क्या किसी महामारी या अन्य आपदा से बचाना सरकार का काम नहीं या ऐसी आपदाओं से उपजने वाले संकट में अपने नागरिकों को रोजगार देना, भोजन देना, उनको उचित चिकित्सीय सुविधाएँ प्रदान करना सरकार का काम नहीं? ज्योति कहती हैं ये सब सरकार के काम तो हैं पर नागरिकों को खुद के लिए भी कुछ करना चाहिए, जितना मोदी कर रहे हैं अपने देश के लिए उतना तो कोई बाप भी अपने बेटे के लिए नहीं करता। ये जो मजदूर पैदल जा रहे हैं इस समस्या को इन्होने खुद ही पैदा किया है। जब खाना सरकार दे रही है तो एक जगह रह नहीं सकते? रेल की पटरी से जाने का क्या कारण है जब मोदी जी ने मात्र इनके लिए सभी रास्ते खोल दिए हैं, पटरी पर सोएंगे तो मरेंगे ही न।

ज्योति की ही तरह अमित रावत भी पैदल जाते मजदूरों को भोजन न मिलने के लिए सरकार से अधिक दोषी उन लोगों को मानते हैं जो धर्म के नाम पर कांवडिय़ों को भोजन करा देते हैं पर इन मजदूरों को नहीं। उनके मुताबिक क्यों नहीं सब लोगों ने मिलकर इन पैदल जाते मजदूरों को कहीं इकठ्ठा कर खाना खिलाने और जगह-जगह टेंट लगाने के प्रयास किये। अमित मानते हैं कि सरकार की सीमा है और उसके पास धन की भी कमी है। पर न जाने यही अमित ये कैसे मान लेते हैं कि जिस देश में सरकार के पास ही धन कम है उसके नागरिकों के पास इतना धन कैसे हो सकता है जिससे कि वे सबको भोजन और राहत प्रदान कर सकें।

इस बीच हमें एक फोन फिनलैंड से आया कौशल पूनिया का। कौशल 34 वर्षीय सॉफ्टवेयर डेवलपर हैं जो मेरठ उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं और इस समय अपनी सेवाएँ फिनलैंड देश की राजधानी हेलसिंकी में दे रहे हैं। कौशल को मजदूर मोर्चा के “साहसिक बोल” यू ट्यूब चैनल के तहत बनायी जाने वाली वीडियो से समस्या है। उनसे फोन पर हुई बातचीत के कुछ अंश शब्दश: पाठकों के समक्ष रखना बेहतर होगा।

कौशल- हे, हाउज यू डूइंग? दिस इज कौशल फ्रॉम फिनलैंड, आपका विडियो अपने एक दोस्त निशांत (जो आपका भी दोस्त है) जो अमेरिका में रहता है, से मिला। वो भी आपकी ही तरह इंडिया की बस बुराई करता रहता है।

मजदूर मोर्चा- हम कैसे इंडिया की बुराई करते हैं?

कौशल- आपको कभी भी भारत की तारीफ करते नहीं सुना, हर विडियो में बस मोदी की बुराई।

मजदूर मोर्चा- मोदी की बुराई भारत की बुराई है?

कौशल- बिलकुल, आज जब देश मुश्किल वक्त में है तब भी उन्होंने बीस लाख करोड़ रुपये देश को दे दिए। क्या ये सब आपको नहीं दिखता कि जब बड़े-बड़े देश ये नहीं कर पाए तब मोदी जी ने वो कर दिया जो नामुमकिन था। आप खुशकिस्मत हो जो ऐसा प्रधानमंत्री मिला।

मजदूर मोर्चा- जब सब इतना ही अच्छा हो गया है तो आप फिनलैंड में क्या कर रहे हैं, क्यों नहीं हिन्दुस्तान वापस आ जाते और बीस लाख करोड़ में अपना हिस्सा भी ले लेते?

कौशल- अपने बेहतर कैरीयर के लिए बाहर जाने का हक सबको है, और ये मुझे आपसे जानने की जरूरत नहीं। और जिस एनआरसी का विरोध ये मुल्ले कागज न दिखाने के नाम पर कर रहे थे अब वही कागज दिखा कर बीस लाख करोड़ में अपना हिस्सा मांग रहे हैं।

मजदूर मोर्चा- इसी तरह अपनी बात कहने का हक हमें भी है। पर आपको ये खबर कहाँ से मिली जिसमे लोग कागज़ दिखा कर हिस्सा मांग रहे हैं?

कौशल- सारे जर्नलिज्म का ठेका सिर्फ तुम्हारे पास ही नहीं है।

इसके साथ ही कई और बातें जिनमे हिन्दू, हिंदी, हिंदुत्व जैसी बातों की भरमार थी, के बाद कौशल ने फोन काट दिया। कौशल की बातचीत के निष्कर्ष को पाठक खुद भी निकाल सकते हैं या पूरी खबर पढऩे के बाद जांच भी सकते हैं। अब जो असल भारत में रह कर इसके निर्माण की यात्रा मुकम्मल कर रहे हैं एक खबर उनकी भी सुनते चलिए।

26 वर्षीय राजकुमार चार साल पहले बिहार के भागलपुर से दिल्ली आये थे। एक ठेकेदार के तहत बेलदारी का काम करते-करते मिस्त्री बन गए। फरीदाबाद में काम मिल गया था कि अचानक कोरोना के नाम पर तुगलगी लॉकडाउन हो गया और इतने दिन सरकार के कहने से फरीदाबाद में भिखारी बन कर रुके रहे। अब अपने साथियों के साथ एक जत्था बना कर पैदल भागलपुर जा रहे हैं।

बीस लाख करोड़ की बात करने पर राजकुमार और उनके साथ खड़े सभी साथी  हंस पड़े। हाथ में रखी बाल्टियों और दूसरी गठरियों को नीचे रख बोले, भईया इसका तो बड़ा हल्ला हो रहा है, जरा कुछ समझाओ क्या इसमें से कुछ पैसे हमें भी मिलेंगे? हमारे जवाब देने से पहले राजकुमार के ही एक साथी अमरजीत ने कहा: जो खाना नहीं दे पा रहा वह पैसे देगा?

“देखो भईया बीस लाख करोड़ हों चाहे जितना मर्जी, पर हम भूलेंगे नहीं जो हमारे साथ हुआ है। ये जो पैसा मोदी जी बोले हैं वो देंगे तो सब बडे्-बड़े लोगन को, और हमे चाहिए भी नहीं। हम तो बस इतना कह रहे हैं कि हमे घर जाने दो। कभी बोलते हैं बईठे रहो गाड़ी चल रही है उसी में जाना, फिर कहते हैं पईसा दे दो रेलगाड़ी का। अरे जब गाड़ी का पइसा होता तो हम खुदै नहीं चले गए होते टिरक वाले को तीन हजार देकर। वो जो हवाईजहाज वाले हैं उनको तो फिरी में उठा-उठा के ला रहे हैं और हम सबको पैदलो नहीं जाने दे रहे। जो मर्जी बोलें पर हमे मालूम है कि हमको पहले भी गारा माटी ढो करके ही जीना था आगे भी ऐसे ही जीना होगा। मोदी जी रोज बकबका रहे हैं, पर एक्को बार कौनो पूछने नाही आया कि एक महिन्ना से निरा भात खा रहे हो जीओगे कइसे। भईया जी हमहो को पता है और आपो कै कि ई सब का है।

अमरजीत की बात बेशक भोजपुरी में उतनी पॉलिश और अर्थशास्त्र के शब्दों से लैस न लग रही हो पर बात का एक-एक बोल उतना ही सटीक है जितना कि किसी रीढ़ वाले अर्थशास्त्री के आंकडे।

जिन मजदूरों की हालत को मोदी ने बलिदान और त्याग बता कर कन्नी काट ली, उस लाचारी और मजबूरी को संकेत ने माँ- बहन के गालियों से नवाज दिया। जो लोग हवाई जहाज से कोरोना लाये वे दूसरे देश गए थे पढऩे या कमाने ,ठीक वैसे ही जैसे कुशल अपना सारा श्रम और टैक्स तो फिनलैंड में देते हैं पर भारत के बारे में अफवाहें फैलाते रहते हैं। ज्योति और अमित जैसे युवाओं की बुद्धि को इतना कुंद किया जा चुका है कि वे सरकार को पकिस्तान से लड़ाने वाले जानवर से अधिक कुछ समझते ही नहीं, जिसकी सिवाय लडऩे के दूसरी कोई जिम्मेदारी नहीं।

जिन मजदूरों को पैदल चल कर भी घर नहीं जाने दिया जा रहा उन्होंने एक-एक पाई इसी देश में कमाई और यहीं खर्ची है। उनके बच्चों को न कौशल जैसी शिक्षा मिली न चिकित्सा और न ही सम्मान। इस देश के किसी भी हिस्से ने उसे भारत के अभिन्न अंग के रूप में अपनाया हो, ऐसा दिखता नहीं। बाकी बीस लाख करोड़ से किस भारत का निर्माण होगा और उस भारत की अवधारण क्या होगी, कौन लोग शामिल होंगे, इसे सडक़ नापने को मजबूर श्रमिक अमरजीत से बेहतर और आसान भाषा में शायद ही कोई और समझा सकेगा।

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Mazdoor Morcha
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