एक जमाना वह भी था जब यूनियन नेता का पता ही नहीं चलता था, छिप-छिप कर यूनियन का गठन किया जाता था और एक जमाना यह आ गया कि यूनियन कब्ज़ाने के लिये लाखों खर्च करके कोर्ट का सहारा लेने में भी कोई शर्म महसूस नहीं होती…

एक जमाना वह भी था जब यूनियन नेता का पता ही नहीं चलता था, छिप-छिप कर यूनियन का गठन किया जाता था और एक जमाना यह आ गया कि यूनियन कब्ज़ाने के लिये लाखों खर्च करके कोर्ट का सहारा लेने में भी कोई शर्म महसूस नहीं होती…
October 25 14:09 2020

1977-80 के दौरान शिखर पर पहुंची एचएमएस सीटू आज रसातल की ओर क्यों

सतीश कुमार  (सम्पादक : मजदूर मोर्चा)

इन्दिरा गांधी द्वारा थोपी गयी इमरजेंसी के बाद 1977 में जनता पार्टी की हुकूमत आने के बाद थोड़ी बहुत बढ़त तो एटक व बीएमएस ने भी ली थी परन्तु एचएमएस व सीटू ने अत्यधिक बढ़त बनाई थी। जाहिर है इसके पीछे जनता पार्टी हुकूमत में शामिल राजनीतिक पार्टियों में से किसी न किसी का इन ट्रेड यूनियनों को प्रत्यक्ष समर्थन एवं संरक्षण प्राप्त था। लेकिन एचएमएस व सीटू को मिली अधिक बढत के पीछे उनके पास बड़ी यूनियनों का होना था। एचएमएस के पास जहां एस्कॉर्टस जैसी बड़ी भारी भरकम यूनियन थी तो सीटू के पास गेडोर यूनियन थी। गेडोर यूनियन बेशक एस्कॉर्टस यूनियन के एक चौथाई के बराबर थी, लेकिन सीटू के पास गेडोर के अलावा और भी कई अच्छी इकाइयों के साथ-साथ अनुभवी कैडर और एक ठोस विचार धारा भी थी। इसके अलावा सीटू का संगठन एचएमएस की अपेक्षा, इस शहर में काफी पुराना भी था; इस नाते जड़ें गहरी थीं।

लेकिन आज दोनों के हालात पतले हैं। सीटू तो फिर भी जैसे-तैसे अपने दम पर खड़ी है, उठने-बैठने को अपना ठौर-ठिकाना कहे जाने वाला दफ्तर है। बेशक वह शहर की किसी प्राइम लोकेशन पर न होकर बसेलवा कॉलोनी में है, पर है तो सही, एचएमएस के पास तो वह भी नहीं। इसका मूल कारण है कि सीटू ने विभिन्न कारखानों में अपनी इकाइयां खड़ी करके उन्हें नेतृत्व प्रदान किया जबकि एचएमएस को खुद एस्कॉर्ट यूनियन ने गोद लिया। इस नाते एचएमएस का नेतृत्व भी सदैव एस्कॉर्ट यूनियन नेताओं के हाथ में रहा। एचएमएस का दफ्तर भी शुरू से लेकर गत वर्ष तक एस्कॉर्टस यूनियन के दफ्तर में ही चलता रहा। इन हालात में एचएमएस का अपना कोई नेतृत्व विकसित हो ही नहीं पाया। एचएमएस जो भी संघर्ष चलाती व जीतती वह एस्कॉर्टस के खाते में ही लिखा जाता रहा। इसके पीछे एस्कॉर्टस यूनियन द्वारा एचएमएस को दिया जाने वाला वह मासिक चंदा भी रहा है जो तमाम यूनियनों द्वारा दिये जाने वाले कुल चंदे से भी कहीं ज्यादा होता है। अब यह तो पुरानी कहावत है कि बटुआ घर को नियन्त्रित करता है यानी जो पैसा देगा वह चौधर भी करेगा ही।

कहने भर को एचएमएस राज्य इकाई प्रधान स्वर्गीय रामकृष्ण सहगल तथा जि़ला इकाई के प्रधान पहले कामरेड दिलीप सिंह व बाद में नागेश बने। लेकिन वास्तविक नियन्त्रण एस्कॉर्टस यूनियन के प्रधान सुभाष सेठी के हाथ में ही रहा। उनके बाद जो भी एस्कॉर्टस यूनियन का प्रधान होता गया एचएमएस पर उसका ही नियंत्रण चलता रहा। चलता भी क्यों नहीं जब सदस्य संख्या व धन बल उनके पास होने के साथ-साथ दफ्तर की जगह भी उन्होंने ही दे रखी थी तो नियंत्रण तो होना ही था। लेकिन गत वर्ष यह तालमेल यानी एचएमएस व एस्कॉर्ट यूनियन का यह रिश्ता भी चरमरा कर टूट गया। एस्कॉर्टस यूनियन ने एचएमएस को अपनी इमारत से बाहर का रास्ता ठीक ऐसे दिखा दिया जैसे किसी शरणार्थी को, मकान मालिक द्वारा उठा कर बाहर फेंक दिया जाता है। तब से एचएमएस का दफ्तर एस्कॉर्टस यूनियन दफ्तर के सामने पुल के नीचे चल रहा है। दस फीट जरब दस फीट का यह कमरा भी 6500 रुपये मासिक किराये पर लिया गया है जिसे खाली कराने के लिये कमरा मालिक दबाव दे रहा है। इतना ही नहीं एस्कॉर्टस यूनियन से मिलने वाला 6000 रुपये मासिक का चंदा भी बंद हो गया।

भले वक्तों में यानी सेठी के जमाने में यह चंदा 12000 मासिक हुआ करता था। बीच में एक बार भूपेन्द्र सिंह एस्कॉर्ट यूनियन प्रधान बने तो इस चंदे को बंद कर दिया गया। करीब 6 साल बंद रहने के बाद, जब एसडी त्यागी प्रधान बने तो यह चंदा फिर से शुरू तो हुआ लेकिन 12000 की जगह मात्र 6000 रुपये, लेकिन बीते बरस जब वज़ीर सिंह डागर प्रधान थे तो एचएमएस को द$फ्तर से बाहर करने के साथ-साथ एचएमएस को मिलने वाला 6000 का चंदा भी बंद कर दिया गया। इसके पीछे एचएमएस का एक धड़ा डागर का भाजपा प्रेम देखता है। विदित है कि डागर भाजपा के सक्रिय कार्यकर्ता है तथा इस बार भाजपा की जि़ला इकाई के प्रधान बनने की दौड़ में भी थे। लेकिन डागर इस आरोप का खंडन करते हैं। उनका कहना है कि वे बेशक भाजपा से जुड़े हैं लेकिन एचएमएस से उनका कोई विरोध नहीं। पूछे जाने पर उन्होंने स्पष्ट किया कि उनके दफ्तर में बैठ कर और उनसे चंदा लेकर जब कोई उनकी ही जड़ काटेगा तो कैसे कोई बर्दाश्त करेगा? विस्तृत विवरण देते हुए उन्होंने बताया कि उनकी यूनियन से जुड़े प्लांट  में समानांतर यूनियन खड़ी करने के प्रयास में जिस रजिस्ट्रेशन के लिये श्रम विभाग में आवेदन किया गया था, उस आवेदन में उन्हीं के दफ्तर का पता दिया गया था। ऐसे भीतरघात को भला कैसे सहन किया जा सकता था। डागर के मुताबिक एचएमएस दफ्तर के बहाने उनके विरोधी गुट के लोग मुख्यतया एसडी त्यागी व सुरेन्द्र लाल तथा उनके लगुए-भगुए दफ्तर में आकर उनके विरूद्ध साजिश रचते थे, इसलिये उन्होंने एचएमएस दफ्तर को ही अपने यहां से बाहर कर दिया।

संदर्भवश यह जान लेना भी जरूरी है कि एस्कॉर्टस यूनियन के प्रधान रह चुके एसडी त्यागी के रिटायर होने के बाद पहले मूल चंद प्रधान बने, उसके बाद जब डागर चुनाव में खड़े हुए तो एसडी त्यागी ने डागर की खिलाफत करके हरवाया। अगली बार त्यागी के पुरज़ोर विरोध के चलते डागर प्रधान चुने गये। इस विषय में डागर का मानना है कि त्यागी जैसे वरिष्ठ एचएमएस नेता जो राज्य इकाई के प्रधान तथा राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं, इस तरह की ओछी भूमिका नहीं निभानी चाहिये थी। उनके लिये सभी उम्मीदवार बराबर होने चाहिये थे। लेकिन इस तरह की ओछी भूमिका निभा कर उन्होंने एस्कॉर्ट श्रमिकों में धड़ेबंदी को बढावा देकर अपना रूतबा भी घटा लिया है। दूसरी ओर त्यागी इस आरोप का खंडन करते हैं।

इस धड़ेबंदी के चलते एस्कॉर्टस यूनियन का एक धड़ा चुनाव कराने को लेकर पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट तक भी जा पहुंचा था। हुआ कुछ यूं था कि मई 2019 में यूनियन प्रधान डागर के नेतृत्व में प्रबन्धन से त्रिवर्षीय समझौता वार्ता चल रही थी तो प्रधान एवं कार्यकारिणी की समयावधि समाप्त हो गयी थी। नये चुनावों को समझौतावधि तक टालने के लिये श्रमिकों की आम सभा ने प्रस्ताव पास कर दिया। लेकिन दूसरे धड़े को यह बात हजम नहीं हुई और लाखों रुपये खर्च करके हाई कोर्ट से तुरन्त चुनाव कराने का आदेश ले आये। बेशक इस मुकदमे में यूनियन के भी लाखों खर्च हो गये और चुनाव भी कराना पड़ा। चुनाव हो गया लेकिन डागर ने पहले से भी 100 वोट अधिक लेकर चुनाव कराने वालों के मुंह पर करारा तमाचा जड़ दिया। वह बात अलग है कि डागर दोबारा प्रधान बनने के बावजूद समझौता वार्ता पूरी नहीं कर पाये क्योंकि कुछ माह बाद वे रिटायर हो गये। उनके रिटायर होते ही पूरी कार्यकारिणी स्वत: भंग हो गयी। कुछ समय बाद फिर से चुनाव हुए पूरी कार्यकारिणी फिर से बनी। समझौता वार्ता फिर से चली। समझौता भी हुआ लेकिन इस समझौते में उतना नहीं मिल सका जितना डागर के समय मिलने जा रहा था।

यहां गौरतलब बात यह है कि एक जमाना वह भी था जब यूनियन नेता का पता ही नहीं चलता था, छिप-छिप कर यूनियन का गठन किया जाता था और एक जमाना यह आ गया कि यूनियन कब्ज़ाने के लिये लाखों खर्च करके कोर्ट का सहारा लेने में भी कोई शर्म महसूस नहीं होती। जाहिर है अब यूनियन नेता बनने के पीछे निजी एवं निहित स्वार्थ हावी होने लगे हैं।

 

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