फरीदाबाद (म.मो.) एनएच-3 स्थित मेडिकल कॉलेज अस्पताल में बीते करीब एक साल यानी जब से डॉक्टर नोवक गुप्ता नियुक्त हुये हैं उन कैंसर मरीज़ों का इलाज भी शुरू हो गया, जिन्हें पहले निजी व्यापारिक अस्पतालों को रैफर किया जाता था। उसमें न केवल ईएसआई र्कार्पोरेशन को मोटे भुगतान करने पड़ते थे बल्कि निजी अस्पताल वाले, मरीज़ों को भी डरा-धमका कर उनसे भी अच्छा-खासा ठगते थे।
यह तो अच्छी बात है कि ईएसआई के अपने अस्पताल में इन मरीज़ो का इलाज शुरू हो गया। परन्तु बुरी बात यह है कि दिल्ली स्थित मुख्यालय में बैठे ‘बाबू लोग अपनी जनविरोधी आदतों के चलते यहां न तो आवश्यकतानुसार स्टाफ दे रहे हैं और न ही दवायें। एक वर्ष पूर्व जब डॉक्टर नोवक गुप्ता बतौर एंकॉलॉजिस्ट नियुक्त हुये थे ; काम की अधिकता होने के चलते उन्हें शाम 5-6 बजे तक मरीज़ देखने पड़ते थे जबकि 4 बजे अस्पताल की छुट्टी हो जाती है। वे 4 बजे छुट्टी करना भी चाहते तो कर नहीं सकते थे क्योंकि सुबह से अपनी बारी के इन्तज़ार में बैठे मरीज़ों को बिना देखे छोड़ जाना अमानवीय कहा जाता।
लेकिन उस अमानवीयता के लिये कोई भी मरीज़ ईएसआई निगम मुख्यालय में बैठे निकम्मे बाबुओं को दोषी नहीं ठहराता, क्योंकि वे इस कुव्यवस्था से परिचित नहीं होते, उन्हें तो केवल वह डॉक्टर ही दोषी लगता है जो सुबह से बैठा मरीज़ों को देख रहा है।
जानकर बताते हैं कि स्थिति से तंग हो कर जब डॉक्टर नोवक गुप्ता ने नौकरी छोडऩे की तैयारी कर ली तो कहीं जाकर 25 जनवरी को एक विशेषज्ञ डॉक्टर (एंकॉलॉजिस्ट) अजय गुप्ता को नियुक्त किया गया। इन दोनों डॉक्टरों के पास 250 से अधिक मरीज़ हैं। इन्हें निश्चित समय के अंतराल पर बुला कर दवा (थेरेपी) आदि देकर अगली किसी तारीख पर आने की कह कर भेजा जाता है। इतने मरीज़ों को ट्रीट करना इन दो डॉक्टरों के बस का भी नहीं है। इसके लिये कम से कम चार साधारण डॉक्टर चाहिये जो विशेषज्ञ डॉक्टरों के दिशा निर्देशन पर अमल करते हुए थैरेपी दे सकें। सूत्र बताते हैं कि पूरे अस्पताल में विशेषज्ञ डॉक्टरों के साथ काम करने के लिये 18 साधारण डॉक्टरों के पद स्वीकृत हैं जो सभी रिक्त पड़े हैं। इतना ही नहीं नर्सिंग स्टाफ की कमी के चलते इन डॉक्टरों की हालत और भी खराब होती जा रही है। कैंसर के इलाज में लगने वाली दवायें बहुत महंगी होती हैं। जिनकी आपूर्ति जरूरत के हिसाब से की जाती है यानी स्टॉक में बहुत अधिक मात्रा में नहीं रखी जाती।
लेकिन कई बार देखने में आता है कि डॉक्टर द्वारा लिखे जाने के बावजूद समय पर दवायें मंगाने में कोताही बरती जाती है। सम्बन्धित बाबुओं का प्रयास रहता है कि किसी प्रकार इतनी महंगी दवायें खरीदने से बचा जाये। यह मरीज़ों के जीवन से तो खिलवाड़ है ही सम्बन्धित डॉक्टरों की पेशेवर छवि के लिये भी घातक है। ऐसे बुरे हालात में भला कोई विशेषज्ञ (एंकॉलॉजिस्ट) डॉक्टर क्यों टिके रहना चाहेगा?
ठेकेदार ने आईसीयू वार्ड का कब्ज़ा छोड़ा
सुधी पाठकों ने गतांक में पढा था कि ईएसआई निगम ने अपने एनएच-3 स्थित मेडिकल कॉलेज अस्पताल में 30 बेड का आईसीयू वार्ड ठेके पर दे रखा था जिसे ठेकेदार ने करीब दो साल पूर्व ताला लगा कर बंद कर दिया था।
अब पता चला है कि खबर छपने के तीन दिन बाद ही ठेकेदार ने आनन-फानन में वह वार्ड खाली कर दिया है। खाली भी इतनी जल्दबाज़ी में किया कि उसे अपना सारा सामान उठा कर अस्पताल की बेसमेंट में रखना पड़ा, जहां से वह सामान आठ-दस दिन में उठा कर ले जायेगा। इससे यह सिद्ध होता है कि ईएसआई कारपोरेशन ने अपने इस वार्ड को खाली कराने के लिये ठेकेदार पर कभी कोई दबाव डाला ही नहीं था। लगता है कि अधिकारीगण इस कब्ज़े की आड़ में अपना नया आईसीयू विकसित करने से बचे रहना चाहते थे।
30 बेड के इस वार्ड के अलावा अस्पताल में कम से कम 70 बेड की ऐसी और भी जगह है जिसमें आईसीयू स्थापित किया जा सकता है। लेकिन ईएसआई कॉर्पोरेशन को कम से कम साढे तीन सौ नर्सिंग स्टाफ व 30 डॉक्टरों की अतिरिक्त आवश्यकता होगी। आईसीयू में लगने वाली उपकरणों व अतिरिक्त आवयश्क स्टाफ पर होने वाले खर्च को बचाने के चक्कर में मात्र 20 बेड का दिखावटी आईसीयू चलाये रखना चाहता है।