इस अस्पताल की दसवीं मंजिल पर बने 100 बेड के सर्जिकल वार्ड को पूरी तरह से खाली करा लिया गया है।

इस अस्पताल की दसवीं मंजिल पर बने 100 बेड के सर्जिकल वार्ड को पूरी तरह से खाली करा लिया गया है।
March 31 10:26 2020

बेशक कितने भी मर जायें पर कोरोना के नाम से नहीं

फरीदाबाद (म.मो.) कोरोना वायरस से लडऩे के नाम पर लम्बा लॉक-डाउन चल पड़ा है ताकि संक्रमण द्वारा बीमारी के फैलाव को रोका जा सके। ठीक है इस से संक्रमण तो नहीं ही होगा बीमारी भी नहीं फैलेगी लेकिन केवल लॉक-डाउन से ही जो लोग मर जायेंगे वे कौन से खाते में जायेंगे?  जाहिर है कम से कम कोरोना के खाते में तो नहीं ही जायेंगे।

स्थानीय मेडिकल कॉलेज अस्पताल की ओपीडी जो 3000 की थी अब मात्र 500 की रह गयी है यानी जहां रोजाना 3000 मरीज़ इलाज के लिये आते थे अब मात्र 500 रह गये हैं। क्या शेष 2500 लोग 100-200 रुपये भाड़ा खर्च करके अस्पताल में घूमने आते थे जो अब बंद हो गये? अथवा वे लोग लॉक-डाउन होने के बाद एकदम स्वस्थ हों गये?  नहीं ऐसा कभी नहीं हो सकता, उन्हें अस्पताल आने से रोका जा रहा है। कुछ तो पब्लिक ट्रांस्पोर्ट की उपलब्धता न होने से और ऊपर से पुलिस की सख्ती से मरीज़ अस्पताल तक नहीं पहुंच पा रहे हैं।

शहर के सबसे बड़े सरकारी बीके अस्पताल ने तो अपनी ओपीडी बंद ही कर दी है। अब वहां केवल खांसी-जुकाम वाले उन मरीज़ों को देखने का उपक्रम किया जाता है जिन्हें कोरोना संक्रमित होने का भय लग रहा हो। ऐसे मरीज़ों को देख कर भी डॉक्टर कुछ विशेष करने की स्थिति में नहीं होते। वैसे भी खांसी-जुकाम के लिये कोई दवा दी जाती भी नहीं। हां किसी पर संदेह कुछ ज्यादा हो तो उसका ‘कफ’ सेंपल लेकर टै्रस्टिंग के लिये रोहतक या गोहाना के मेडिकल कॉलेज में भेज दिया जाता है क्योंकि यहां तो कोई टैस्टिंग सुविधा भी नहीं है। इन मरीज़ों के अलावा महिलाओं की डिलिवरी आदि का काम भी चल रहा है, बाकी के मरीज़ भगवान राम के भरोसे।

दिल्ली के एम्स व सफदरजंग जैसे बड़े अस्पतालों में जहां कई हज़ार मरीज़ दूर-दूर से ओपीडी में आते थे पूर्णतया बंद कर दिया गया है। दरअसल वहां के गलियारों में मरीज़ों की इतनी जबरदस्त भीड़ रहती थी कि आते-जाते मरीज़ों के आपस में कंधे टकराते थे। जाहिर है ऐसे में संक्रमण फैलने का खतरा बहुत अधिक रहता है। इस खतरे को दूर करने के लिये अथवा भीड़ घटाने के लिये नये अस्पतालों की व्यवस्था करने की बजाय दो वर्ष पूर्व ‘आयुष्मान भारत’ का ड्रामा रचा गया और ओपीडी ही बंद कर दी।

लचर चिकित्सा व्यवस्था के अलावा लॉक-डाउन के दौरान जो गरीब रोज़ कमा कर खाते थे वे क्या खायेंगे? लाखों रिक्शा, रेहड़ी झल्ली वाले नाई, मोची पल्लेदार व कुली आदि कहां से खायेंगे? दूर-दराज के गांवों को लौटना चाहें तो कोई साधन नहीं छोड़ा उनके लिये। सैंकड़ों मील के सफर पर बाल बच्चों के साथ पैदल ही निकल पड़े, सब राम लला के भरोसे। रास्ते में दूध का कोई खाली टेंकर मिल गया तो 10-20 लोग उसी में जैसे-तैसे समा जाते हैं। यात्रा सरल करने के चक्कर में जान का जोखिम तक उठाना पड़ता है। कुल मिलाकर इलाज के अभाव में, भूख से व अन्य सुविधाओं के अभाव में लोग बेशक कितने ही मर जायें, परन्तु सरकार 56 इन्च का सीना ठोक कर तो कह ही सकती है कि कोरोना से लोगों को नहीं मरने दिया।

कोरोना के नाम पर ईएसआईसी अस्पताल के 100 बेड आरक्षित

केन्द्र में राज्य सरकार ने कभी भी चिकित्सा सेवाओं पर लफ्फाज़ी से आगे बढकर कोई ठोस काम करने की जरूरत नहीं समझी। कोरोना का संकट आया तो ईएसआईसी के एनएच-तीन स्थित उस मेडिकल कॉलेज अस्पताल से 100 बेड एक झटके में सरकार ने उन मज़दूरों से छीन लिये जिनके खून-पसीने की कमाई से यह संस्थान केवल उन्हीं मज़दूरों के लिये बनाया गया था जिनके वेतन से प्रति माह ईएसआईसी साढे चार प्रतिशत (जो गत वर्ष तक साढे छ: प्रतिशत था)वसूलता है।

इस अस्पताल की दसवीं मंजिल पर बने 100 बेड के सर्जिकल वार्ड को पूरी तरह से खाली करा लिया गया है। विदित है कि 510 बेड के इस अस्पताल में सदैव 600 से 650 मरीज़ दाखिल रहते हैं। इस स्थिति को देखते हुए करीब 250 बेड बढाने की बात बीते करीब एक वर्ष से चल  रही है। बढोतरी तो न जाने कब  होगी लेकिन एक झटके में 100 बेड उन मज़दूरों से छीन लिये जिनके पैसे से ये बेड बनाये गये थे।

समझने वाली बात यह है कि क्या अब तक ठसा-ठस भरे इस अस्पताल में 100 मरीज़ कम भर्ती होंगे क्या  वे कम बीमार होंगे? नहीं, इसके लिये अस्पताल की पॉलिसी यह है कि जरूरतमंद मरीज़ों के ऑपरेशन तुरंत करने की बजाय उन्हें लम्बी-लम्बी तारीखें देकर लटकाओ, हो सकता है कि इस बीच वह अपने पैसे से कहीं और ऑपरेशन करा ले या मर जाय तो और भी अच्छा, काम निपटा।

कोरोना फैलने पर चीन ने 10 दिन में पूरे 1000 बेड का अस्पताल खड़ा कर दिया। जबकि यहां सेक्टर आठ में 200 बेड वाले अस्पताल की बिल्डिंग बनी-बनाई खड़ी है। और बीते 40-42 साल से खड़ी है उसे चालू करने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि उसे चालू करने के लिये तो काम करना पड़ता है और काम यहां कोई करना नहीं चाहता। करें भी क्यों जब लफ्फाजी व नारेबाज़ी से ही काम चल जाय तो काम करने की जरूरत क्या है?

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Mazdoor Morcha
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