आइये कारीगरों के आईने से भी सूरजकुंड मेला देखें….. सिर्फ ठेलमठेल और मोल-भाव नहीं, कला-कौशल की  परंपरा को भी जानिये

आइये कारीगरों के आईने से भी सूरजकुंड मेला देखें…..  सिर्फ ठेलमठेल और मोल-भाव नहीं, कला-कौशल की  परंपरा को भी जानिये
February 28 07:37 2020

ग्राउंड जीरो से विवेक कुमार

देश के कर्णधारों के चलते अब एलआईसी, भारत पेट्रोलियम, एयर इंडिया, बीएसएनएल, भारतीय रेल सब बिक रहा है और सबका दाम भी मिल जाएगा, कुछ नहीं मिल रहा तो भारत को महान बनाने वाले कारीगरों को उनका सम्मान और उनके काम का उचित दाम।

जिस वक्त आप यह रपोर्ट पढ़ रहे हैं, सूरजकुंड मेला, वर्ष 2020 में अपना अंतिम दिन मना रहा है। मेले में आये मुख्य आकर्षणों से अखबार पटे हुए हैं और क्या-क्या खास रहा इस मेले में यह जानने के लिए पाठकों को ‘मजदूर मोर्चा पढऩे की जरूरत नहीं है। पर मेले के प्राण, कारीगर और उसकी कला की जमीनी हकीकत जानने में यदि  पाठक रुचि रखते हैं तो यह विवरण आप के लिए है।

मीडिया ने मेले की भव्यता का नजारा और खूबियों का चित्रण ऐसा खूबसूरत किया है, जिससे घर बैठे आप को मेले में पहुँचने का अहसास हो जाए या आप मेले में खिंचे चले आयें। भारत, उज्बेकिस्तान और उसके साथ कुल चालीस विदेशों से आये कलाकारों और उनकी कलाओं की आभा में डूबे इस बार के मेले की जमीनी हकीकत से पहले सूरजकुंड और मेले दोनों के इतिहास का चित्रण आवश्यक है।

सूरजकुंड मेले का आयोजन पहली बार वर्ष 1987 में भारत के हस्तशिल्प, हथकरघा और सांस्कृतिक विरासत की समृद्धि एवं विविधता को प्रदर्शित करने के लिए किया गया था। साल 2013 में इसे अन्तराष्ट्रीय मेले का भी दर्जा मिल गया। सूरजकुंड का नाम यहाँ दसवीं सदी में तोमर वंश के राजा सूरजपाल द्वारा बनवाये गए एक प्राचीन रंगभूमि सूर्यकुंड से पड़ा। इस रंगभूमि पर यूनानी रंगभूमि का असर, जानकार साफ तौर पर देख सकते हैं, जिसका निर्माण सूर्य की आराधना के लिए किया गया होगा, माना जाता है।

भारत की विविधता और तमाम कला स्वरुप के दर्शन मेले के वर्तमान संस्करण में किये जा सकते हैं। जयपुरी रजाइयों की बेहतरीन किस्में लिए सुदर्शन राठौर मेले में चौपाल से दाई तरफ जाने वाले रास्ते पर स्थित अपने स्टाल पर खाली बैठे थे। बात करने पर राठौर ने हरियाणा पर्यटन विभागपर पक्षपात का आरोप लगाते हुए बताया कि जिन लोगों की पहुँच है, लगता है उन्हें ही अच्छी लोकेशन की दुकानें आवंटित हुई हैं।

क्योंकि सुदर्शन पहली बार इस मेले में शिरकत कर रहे हैं इसलिए उन्हें जमीनी हकीकत का पता नहीं था। अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि जब दुकान लेने की कतार में वह खड़े थे तो पाया कि अधिकारी हम लोगों को भिखारी से अधिक कुछ समझ नहीं रहे हैं। तीन-तीन घंटे लाइनों में लगाये रखने के बावजूद पीने के पानी तक का कहीं कोई बंदोबस्त नहीं था। जैसे-तैसे एक स्टाल मिला है, तो ऐसी लोकेशन दी है जहाँ ग्राहक पहुँच ही न सके।

भदोही से आये 34 वर्षीय अहमद का सूरजकुंड में अनुभव पिछली दो बार से कुछ अच्छा नहीं है। विश्व भर में कालीनों के लिए मशहूर उत्तर प्रदेश का भदोही जिला अब मंदी की चपेट में है। अहमद ने बताया कि भारत में भदोही के कालीनों की मांग से कहीं अधिक मांग विदेशों में है, अर्थात निर्यात पर भदोही की निर्भरता बहुत अधिक है। क्योंकि निर्यात के हाल ही खस्ता होते चले जा रहे हैं तो कमाई कहाँ से हो? इन हालातों में क्या उपाय कर रहे हैं, कुछ नहीं बस कारीगरों में कटौती कर देते हैं और बतौर ट्रेडर हम तो मेलों और दूसरी प्रदर्शनियों में चले जाते हैं  पर मजदूर पर इस मंदी की मार सबसे अधिक है।

अहमद की ही तरह तौफीक और सलीम भी सूरजकुंड में भदोही और मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश की कालीनों को लेकर आये हैं। सलीम ने बताया कि अम्बानी जैसे बड़े कॉर्पोरेट अब पोलिएस्टर के दाने भी बनाते हैं, उन दानों और मशीनों की बदौलत भदोही जैसे कारपोरेट भी बड़ी ही तेजी से तैयार हो जाते हैं। मशीन से तेजी से पूर्ति के कारण इस एकतरफा प्रतियोगिता ने भी हाथ के कारीगरों को पछाड़ दिया है। इसी के साथ जो व्यापारी छोटे स्तर पर काम कर पाते थे अब उन्हें अम्बानी से मुकाबला करना है, “तो आप ही बताओ जिस आदमी पर प्रधानमंत्री तक का हाथ हो उससे सलीम और अहमद भले क्या मुकाबला करेंगे जिनके राज्य के मुख्मंत्री का नाम योगी आदित्यनाथ है।”

हरियाणा के पंचकुला से आयीं 80 वर्ष की महरुन्निसा, कुश की टोकरियाँ बनाती हैं। हरे, लाल, गुलाबी, पीले और नीले रंग में रंगे कुश से बनी उनकी हर टोकरी अपने आप में भारत देश की विविधता को समेटती दिख रही थी। इन रंगों की विविधता ने जैसे टोकरी में लगे कुश के खुरदरेपन को छिपा लिया वैसे ही इस मेले की चकाचौंध ने महरुन्निसा और उन जैसे लाखों की मुफलसी से भरी जिन्दगी को एक छद्म आवरण से ढक दिया है।

दिन भर में दो या कभी-कभी तीन टोकरियाँ बना पाने वाली इस महिला ने बताया कि मेले में एक टोकरी 300 की बिक जाती है पर इस बार काम मंदा है। स्टाल जैसा कुछ लेने की पहुँच उनमे नहीं थी पर अपने ही जिले से आये उनके एक साथी की दुकान के आगे बैठ कर टोकरियाँ बना रही हैं। गाँव में एक टोकरी पर 150 रुपया मिलता है और बस उसी से किसी तरह काम चल जाता है।

हिमाचल के कांगड़ा जिले से आयीं दो बहने सुनीता और संगीता हिमाचल की मशहूर टोपी अपने हाथ से बनाती हैं। एक टोपी बनाने में एक दिन लग जाता है। बारीक काम होने के नाते बहुत अधिक टोपी बना नहीं पाती हैं क्योंकि घर के काम भी करने होते हैं। सूरजकुंड मेले में पहली दफा आये हैं किसी की सलाह पर। फिलहाल अच्छी बिक्री हो रही है, एक दिन में पांच टोपियाँ बिक जा रही हैं जबकि गाँव में तो दो ही बिक पाती हैं। खरीदारों के बारे में पूछने  पर संगीता ने बताया कि यहाँ खरीदार बहुत भाव-तोल करता है जबकि हिमाचल में ऐसा नहीं होता। इसके पीछे क्या कारण हो सकता है, क्या यहाँ लोगों को हुनर की समझ नहीं है? बस पैसे से ही तोलते हैं कला को जबकि एक टोपी सिर्फ तीन सौ रुपये की ही है।

बिलाल कश्मीर से आये हैं और कश्मीर की पश्मीना के साथ-साथ आरी वर्क की शॉलें भी लाये हैं। काम बहुत कम है मेले में इस बार। क्यों, पैसा ही नहीं है लोगों की जेब में। पर भीड़ तो बहुत अधिक है मेले में, बिलाल ने कहा जरूर, भीड़ तो है पर यह भीड़ खरीदारों की भीड़ नहीं है। जो भी आएँगे मोलभाव जरुर करेंगे। इसमें क्या हर्ज है, यह तो ग्राहक का अधिकार भी है। जी बिलकुल है,प र जो काम और उसकी बारीकी को जानता है वह कभी भी हमे बेइज्जत करके मोलभाव नहीं करेगा। अधिकतर लोग इतना कम दाम बोल देते हैं कि हमे गुस्सा आ जाता है और अपमानित भी महसूस करते हैं कि जब आप हुनर को समझते ही नहीं तो क्यों हाथ के काम को खरीद रहे हो। सच बताऊँ तो बेशक भारत में इतना हुनर है लेकिन बनाने वालों को छोड़ शायद ही कोई इसे जानने में दिलचस्पी रखता है।

कश्मीर में  पांच महीने से अधिक समय तक इन्टरनेट बंद रहा, उसका बहुत असर हमारे काम पर पड़ा जो पहले ही दहशतगर्दी के कारण जूझ रहा था। अब जब सूरजकुंड आये हैं तो देख रहे हैं यहाँ तो बिना दहशतगर्दी के ही कश्मीर से भी बुरे हाल होते जा रहे हैं। 65 की उम्र के तौफीक कश्मीरी कालीनों के उस्ताद हैं और निर्यात पिटने के बाद उन्होंने भी सूरजकुंड की ओर मुंह किया है।

सरकार की आलोचना करते हुए बोले, हम तो कश्मीरी हैं और बाकी देश के लोगों को लगता है हम गद्दार हैं तो चलो हम मर जाए भूखे पर आप सब तो कश्मीरी नहीं तो आप के साथ सरकार क्यों नागरिक जैसा पेश नहीं आती। अपने साथ की दूकान पर बैठे एक कारीगर की तरफ इशारा करते हुए कहा, देखो उस मजदूर को, काम का मास्टर है, प र मिलता क्या है 200 रू या पूरे दिन का। मेले में आकर बस यही होता है कि आप जैसे पत्रकार आ जाते हैं तो लोग जानने लगते हैं और थोड़ा फोटो-वोटो आ जाएगी पेपर में तो अच्छा लगेगा।

बिहार के मधुबनी जिले के मंगरू मधुबनी कला में पारंगत हैं, दिलचस्प और दिलखुश व्यक्तित्व के मगरू ने खुद पर नाज करते हुए और पचास मीटर दूर की एक अन्य दुकान पर इशारा करते हुए बताया कि वहां जो कपड़ा है वह हाथ का नहीं मशीन का है, मैं दावे से कह रहा हूँ क्योंकि मेरे पास इसका अनुभव है। पर मेरी इज्जत आप इस बात से नहीं करेंगे, क्योंकि मैं तम्बाकू खा रहा हूँ, न कि सिगार पी रहा हूँ, मैं देसी ताड़ी पीता हूँ न कि विलायती शराब। हमारे समाज में उन्ही की इज्जत है जिनके पास पैसा है, और पैसा उनके पास जिनके पास है चोरी की कला, न कि हस्तकला।

मैं बतौर कारीगर आप को बताऊँ पत्रकार महोदय, हम मर रहे हैं, दिन भर में 300 रुपये कमा लेते हैं और सुनते हैं कि शहरों में 500 मिलते हैं। पर हमसे बनवा कर जो लोग बड़े-बड़े शोरूमों में इसे बेचते हैं इसका सारा श्रेय वही ले जाते हैं क्योंकि, मंत्री, संतरी, हीरो, हेरोइन सब उसी का फीता काटेंगे, बेशक फीता मैंने ही बनाया हो। अगर मैं बीमार  पड़ जाऊं तो भूखा मरूँगा और उसके बाद मेरी बीवी खेत में चावल बोएगी। अब बस जाने दो और नहीं कहूँगा फेफड़ा फूल रहा है, कब प्राण निकल जाएँ पता नहीं, इतना कहकर मंगरू ने हाथ जोड़ लिए।

इस मेले को कई प्रकार से चित्रित किया जा सकता था और किया जा भी रहा है। हर अखबार में कला के नमूनों  पर बात हो रही है, लेकिन कलाकारों की माली हालत का असल चित्रण शायद ही कहीं हो रहा हो। जितने रुपये में एक परिवार इस मेले की टिकट खरीद रहा है उतना ही कारीगर दिन भर हाड तोड़ मेहनत करने के बाद कमा  पाता है।

महरुन्निसा को ही देखें कि 150 रूपया कमा कर संतोष हो जाता है उन्हें। जबकि दस लाख का सूट पहन कर हमारे  प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी खुद को फकीर कहते हैं। मोदी सरकार ने स्किल इंडिया के नाम पर चहेतों को करोड़ों बाँट दिए यह कहकर कि लोगों को हुनर सिखा रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि “मोदी” उपनाम का जब अस्तित्व भी इस दुनिया में नहीं था तबसे भारत में हुनर और कलाओं का स्किल फलफूल रहा है।

दक्षिण के चोल राजा राजराज प्रथम हों या राजेन्द्रवर्धन जिनके राज में मूर्ति कला और तंजौर कला का विकास हुआ या उज्बेकिस्तान, जो इस बार सूरजकुंड मेले का पार्टनर है, के समरकंद से आये बाबर के वंशज मुगल बादशाह अकबर, शाहजहाँ, जहाँगीर जिनके शासन में चित्रकारी से लेकर वास्तुकला एवं स्थापत्य कला का इंडो-इस्लामिक विकास चरम पर पहुंचा। कला और कलाकार हमेशा से इस भारत में हैं पर आज जो नहीं है वो है उनका पुराना सम्मान।

मोदी-खट्टर जैसे शासकों को भी एक बार किताब उठा कर देख लेना चाहिए कि 1963 में शिल्पियों और हस्तकारों को बढ़ावा देने के लिए “नेशनल अवार्ड फॉर आर्टिजन इन क्राफ्ट” शुरू किया गया था। इसके तहत लोक कलाओं से शेष भारत का सम्बन्ध स्थापित करना है। बेशक यह मेला भी उसका एक बेहतर हिस्सा है पर 16 दिन बाद, साल के बचे हुए दिन भी यदि यह कारीगर कारीगरी करते हुए जी सकेंगे तभी हम अगले मेले आयोजित करते रह  पायेंगे। वरना लोक कलाओं को भी चीनी आर्टिफीसियल माल से ही बना कर, मेले की ब्रांड एम्बेसडर बनाई रितु बेरी जैसी डिजाईनरों के माध्यम से ही देख पाएंगे हम और आप , न कि कारीगरों और कारीगरी के आईने से।

 

view more articles

About Article Author

Mazdoor Morcha
Mazdoor Morcha

View More Articles